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कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३३७
फलोत्पादन शक्ति भी मन्द होगी, और उस समय रागद्वेषादि परिणाम तीव्र होंगे तो फलोत्पादन शक्ति भी तीव्र होगी, तथा फलप्रदान करने यानी फल भुगवाने की अवधि ( कालमर्यादा ) भी लम्बी होगी । अर्थात् कर्म अपना फल तीव्ररूप में और देर से भुगवाएँगे।'
दुःखविपाकसूत्र में ऐसी कई दुःखरूप विपाक की सत्य घटनाएँ अंकित की हैं, जिनमें कर्मबन्ध करते समय उन-उन व्यक्तियों के परिणाम अत्यन्त क्रूर तथा हिंसादि पापकर्मों के करने में आनन्द मानने की तीव्रता से युक्त थे, उनके अन्याय, अत्याचार एवं हिंसा, असत्य, मांसाहार, मद्यपान, आदि के पापकर्म का घट दिनानुदिन तेजी से भरता जा रहा था, किन्तु जब फल भोगने (कर्मविपाक) का समय आया तो उतनी ही तीव्रता और उतनी ही कालमर्यादा के बाद उन्हें अत्यन्त दुःखद फल भोगने पड़े।
इक्काई को उसके पूर्व जन्म के अत्याचारों और पाप कर्मों के फलस्वरूप जन्मान्ध मृगापुत्र के रूप में फलभोग प्राप्त होना इस तथ्य का साक्षी है। मृगापुत्र केवल मांस का गोलमटोल पिण्ड बना था उसकी मां जो भी उसे खिलाती वह सड़कर बाहर निकल जाता था, दुर्गन्ध मारता था। इसी प्रकार कर्मों का फल भी परिणामों की धारा, तथा काल - मर्यादा के अनुसार भोगना पड़ता है ।
कर्मों के फलभोग की कालसीमा
कर्मों के फलभोग की कालसीमा मद्य की भांति समझनी चाहिए। किसी मद्य का नशा जल्दी ही चढ़ जाता है, किसी का देर से; परन्तु नशा अवश्य ही चढ़ता है। इसी प्रकार किसी मद्य का नशा थोड़ी देर तक रहता है, तो किसी मद्य का नशा देर तक रहता है। जैसे मद्यपान करने के बाद उसे नशा पैदा करने के लिए अर्थात्-मद्यसेवन का फल भुगवाने के लिए कुछ समय तो अवश्य ही अपेक्षित है। वैसे ही कर्म भी अपना फल तत्काल ही प्रदान नहीं करते। काल-परिपाक होने पर ही वे अपना फल भुगवाना (देना) प्रारम्भ करते हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो अन्तर्मुहूर्त भर में ही तुरंत अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं, और जब तक उनकी कालावधि (स्थिति) रहती है, तब तक वे फल भुगवाते रहते हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जो कुछ दिन, महीने या वर्षों के पश्चात् अपना फल प्रदान करते हैं। कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं, जो इससे भी लम्बा काल व्यतीत होने पर • अपना फल भुगवाते हैं। और कई कर्म ऐसे भी होते हैं, जो जन्म-जन्मान्तर तक संचित पड़े रहते हैं, साथ-साथ चलते हैं, और अनेक जन्मों के बाद अपना फल भुगवाते हैं।
१. देखें- कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेश मुनि) पृ. ६१-६२
२. देखें-दुःखविपाक सूत्र : प्रथम अध्य
३. देखें - कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. ६३
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