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कर्म- महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३४५
अपेक्षा से भी कर्मफलों की गणना करने लगें तो अगणित प्रकार हो जाते हैं। अतः कर्ममहावृक्ष के इन असंख्य कर्मफलों की गणना केवलज्ञानी वीतराग परमात्मा के सिवाय सामान्य मानव तथा अल्पज्ञ और छद्मस्थ मनुष्य नहीं कर सकता । '
सर्वज्ञ आप्त वीतराग परमात्मा द्वारा कर्म के सामान्य और विशेष फलों का निरूपण
अतः उन परम कृपालु वीतराग अनन्तज्ञानादिचतुष्टयनिधान परमात्मा ने मूल कर्म-प्रकृतियों के फल का दिग्दर्शन कराया है, साथ ही उन्होंने जैनागमों में यत्र-तत्र जीवों के विविध परिणामों के अनुसार कर्मबन्ध का निर्देश करके विशिष्ट कर्मप्रकारों के विशेष फल का भी निरूपण किया है । जिज्ञासु और मुमुक्षु व्यक्ति यदि उन कर्मफल सूत्रों पर चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करे तो अनुमान है कि उसके अन्तःकरण में कर्मों के आनव और बन्ध के प्रति विरक्ति, विरति और जागरूकता, सतर्कता और सावधानी उदित एवं जागृत हुए बिना रहेगी ।
जैन कर्म-विज्ञान जिज्ञासुओं को कर्म के अनन्तर और परम्परागत फल, इन दोनों प्रकार के फलों की अपेक्षा से कर्मफल पर मनन-मन्थन करना चाहिए। ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्म प्रकृतियों के फलभोग का निर्देश
यह तो निश्चित है कि प्रत्येक जीव अपने द्वारा पूर्वकृत कर्म का फल (विपाक) तभी भोगता है, जब वह कृतकर्म उदय में आ जाए। संचित (सत्ता में ) पड़े हुए कर्म तब तक अपना फल नहीं देते, जब तक उस कर्म का अबाधाकाल पूर्ण न हो जाए। इसी प्रकार यह भी निश्चित है कि प्रत्येक कर्म अपनी मूल प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार फल-विपाक देते हैं।
ज्ञानावरणीय कर्म का फल विपाक है-उस कर्म के उदयकाल में जीव के ज्ञानगुण को आवृत करना। यह उदय भी दो प्रकार का होता है-सापेक्ष उदय (घातक • पुद्गलों के आघात से, तथा इन्द्रियों के उपघात से) और निरपेक्ष उदय | ज्ञानगुण के आवृत हो जाने पर उस जीव की बुद्धि, स्मृति, पढ़ने-लिखने की शक्ति, स्फुरणाशक्ति, निर्णयशक्ति, निरीक्षण-परीक्षणशक्ति, वस्तुतत्त्व का विश्लेषण करने की शक्ति मन्द, मन्दतर, मन्दतम हो जाती है, कुण्ठित और लुप्त सी हो जाती है। इस कर्म के उदय से
१. कर्म के विपाकानुसार फलों की जानकारी के लिए देखें - कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, गोम्मटसार आदि ग्रन्थ ।
२. देखें - प्रज्ञापना सूत्र (खण्ड-३) के २३ वें कर्म प्रकृति पद में ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाव विषयक चर्चा, द्वार ५, सू. १६७९ विवेचन ( आ. प्र. समिति, ब्यावर ) पृ. २१
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