________________
कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ?
३२५
तीव्र-मन्द अथवा मध्यम रागादि या कषायादि परिणाम (भाव) होते हैं, तदनुसार उसके कर्म का रस-बन्ध होता है, तथा उसी के अनुसार कर्मफल- भोग की स्थिति (काल-सीमा) का बन्ध होता है।
इसी अनेकान्तदृष्टि के आधार पर स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि " जो देव ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं, वे चाहे कल्पोपपन्न हों, चाहे ( ग्रैवेयक आदि ) विमानों में उत्पन्न हों, चाहे अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हों और जो ज्योतिश्चक्र में स्थित हों, वे चाहे गति-रहित हों, या सतत गमनशील हों, वे जो सदा (सतत) ज्ञानावरणीयादि पापकर्म का बन्ध करते हैं, उसका फल कतिपय देव उसी भव में वेदन कर (भोग) लेते हैं और कतिपय देव अन्य भव में वेदन करते हैं। इसी प्रकार नैरयिकों, तिर्यंच-पंचेन्द्रियों तथा मनुष्यों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। '
निष्कर्ष यह है कि चाहे देव हों, मनुष्य हों, नारक हों या तिर्यंच, सबको अपने द्वारा पूर्वकृत ज्ञानावरणीयादि पापकर्म का फल इस भव में, अगले भव में, या अनेक भवों के पश्चात् या अनेक भवों में अवश्य भोगना पड़ता है।
तात्पर्य यह है कि जो जीव कर्म का बन्ध करता है, उसे उसका फल (विपाक) इस जन्म में, अगले जन्म या जन्मों में भोगना पड़ता है। कई कर्म तो ऐसे विलक्षण होते हैं, जो जन्म-जन्मान्तर तक जीव के साथ-साथ चलते रहते हैं, वे अनेक जन्मों के बाद अपना फल प्रदान करते हैं। कुछ कर्म महीनों या वर्षों बाद, अथवा काफी लम्बा काल व्यतीत होने पर अपना फल भुगताते हैं। इसके विपरीत कई कर्मों का फलभोग तत्काल अथवा अन्तर्मुहूर्त में ही हो जाता है। यह सब कर्म के अनुभाग (रस) बन्ध और स्थितिबन्ध पर निर्भर है।
इस लोक में कृत कर्म का, इसी लोक में फलभोग : एक सच्ची घटना
एक व्यक्ति किसी की हत्या कर डालता है, उसका हिंसाजनित कर्मबन्ध तो उसी समय (तत्काल ) हो गया। किन्तु उक्त बद्ध कर्म का फलभोग तत्काल न होकर देर से • मिला। परन्तु मिला उसी जन्म में ।
एक सच्ची घटना 'परमार्थ' (गुजराती मासिक पत्रिका) में पढ़ी थी। वह संक्षेप में इस प्रकार है- कलकत्ते में श्रमजीवी वर्ग का एक व्यक्ति अपनी बहन के साथ रहता था । मेहनत मजदूरी करके जैसे-जैसे अपना गुजारा चलाता था। उसके पास अपनी मालिक
१. देखें स्थानांग सूत्र स्थान २, उ. २, सू. ७७/१९ से २३ तक का मूलपाठ व अनुवाद (पं. मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल') पृ. २४/२५ तथा ४९-५०
२. परमार्थ (गुजराती मासिक पत्रिका) से सार-संक्षेप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org