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३२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५.)
इस चौभंगी में कर्म के अनन्तर फल, और पारम्परिक फल के विषय में अनेकान्त दृष्टि से सुन्दर एवं व्यावहारिक कथन किया गया है। परम्परा से कर्म केवल एक परभव में ही नहीं, उससे आगे के परभवों में यावत् अनन्तभवों में जाकर फल देता है।
तथागत बुद्ध ने भी अपने पैर में चुभने वाले तीक्ष्ण कांटे को उस वर्ष से ९१वें. कल्प पूर्व किसी व्यक्ति को शक्ति (शस्त्र - विशेष ) से मारा था, उसका फल माना था।'
सूत्रकृतांग मूल में भी इसी तथ्य की ओर इंगित किया गया है-कर्मविपाक को इस लोक में या परलोक में, एक बार या सैकड़ों बार उसी रूप में या दूसरे रूप में भोगा जाता है। संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव आगे-से-आगे दुष्कृत का बन्ध और वेदन करते हैं ।
स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध से कर्मफलभोग की काल सीमा तथा तीव्रता मन्दता. का पता चलता है
जैनकर्मविज्ञान कर्मों के बन्ध को चार रूपों में विभक्त करता है। उनमें से एक है स्थितिबन्ध, अर्थात् कर्म की कालमर्यादा । कर्मबन्ध के समय जीव के जैसे रागादि परिणाम होते हैं तदनुसार ही कर्मों में फल- जनन-शक्ति और फल-प्रदान- स्थिति (कालमर्यादा) का निर्माण होता है।
यही कारण है कि कई बार तीव्र अध्यवसाय होते हैं तो कर्म की फलोत्पादन शक्ति भीतीव्र हो जाती है और कर्मों की कालावधि भी लम्बी हो जाती है। इसीलिए इस लोक में किये हुए कई कर्मों का फलभोग परलोक में होता है। इसी प्रकार परलोक में किये हुए कर्मों का फल भी इस लोक में भोगना पड़ता है।
कर्त्ता के परिणामानुसार कर्मफलभोग की कालसीमा (स्थिति) निर्धारित होती है निष्कर्ष यह है कि कर्म करते समय जीव के जैसे-जैसे शुभ-अशुभ अथवा
9. इत एकनवतिकल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।
२. (क) इहलोगे कतं इहलोगे फलति ।
इहलोकतं परलोगे फलति ।
परलोए कतं इहलोगे फलति ।
परलोए कतं परलोगे फलति ।।
परंपरेणेति परभवे, ततश्च परतरभवे एवं जाव अणंतेसु भवेसु ।
(ख) अस्सि च लोए अदुवा परत्था, समग्गसो वा तह अण्णा वा । संसारमावन्न परंपरं ते, बंधति वेयंति य दुण्णियाणि ॥
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- सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. १५३
- तथागत बुद्ध
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- सूत्रकृतांग श्रु. १
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