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कर्मों का फलदाता कौन ? २५५
अतः व्यक्ति की दृष्टि से परमात्मा एक नहीं, अनन्त हैं, किन्तु परमात्मभाव की दृष्टि से सभी परमात्मा समान हैं। सभी में परमात्मभाव एक जैसा ही है। परमात्मा सादि भी है, और अनादि भी है। एक जीव की अपेक्षा परमात्मभाव सादि है, और सभी मुक्तात्माओं की अपेक्षा से परमात्मभाव अनादि है। परमात्मभाव अनन्त है, उसका कभी अन्त नहीं आने पाता। परमात्मा व्यक्ति की अपेक्षा सर्व व्यापक नहीं है, किन्तु उसके ज्ञानालोक में समग्र विश्व आभासित हो रहा है, अतः ज्ञान की अपेक्षा से वह सर्वव्यापक
___ मुक्त परमात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मिक सुख, और अनन्त आत्मशक्ति से सम्पन्न है।
वह जगत् का कर्ता, धर्ता-संहर्ता नहीं है। और न ही वह कर्म-प्रेरक है,न कर्मफलदाता है। संसार के किसी भी प्रपंच में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है। समस्त जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं। परमात्मा जीव को कर्म करने की प्रेरणा नहीं देता; न ही किसी कर्म को करने का निषेध करता है।
जीव जैसा-जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल उसे स्वतः मिल जाता है। कर्मकर्ता के आत्मप्रदेशों पर लगे हुए (श्लिष्ट) कर्म परमाणु ही उसे (जीव को) नियमानुसार अपना फल स्वयं दे देते हैं। परमात्मा का उसके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई वास्ता नहीं है। कर्मफल पाने के लिए परमात्मा माध्यम नहीं बनता। जीव का कर्म या कर्मफल परमात्मा के अधीन नहीं है। जीव किसी भी दृष्टि से परमात्मा के अधीन नहीं है। वह स्वतंत्र है। ___ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा पुनः संसार में अवतरित नहीं होता। वह अवताररूप में आकर किसी का विनाश या उद्धार (परित्राण) नहीं करता। वह न किसी को मारता है, न जिलाता है। सभी जीव अपने-अपने आयुष्य कर्म के अनुसार जीते-मरते हैं। जीव अपने भाग्य का स्वयं निर्माता-हन्ता है। स्वर्ग और नरक, मनुष्य के अपने-अपने सत्कर्म (पुण्य) और दुष्कर्म (पाप) के परिणाम हैं। अपनी जीवन नैया को तारने-डुबोने वाला जीव स्वयं ही है। ईश्वर को इससे कोई वास्ता नहीं है। ___ इसके बावजूद भी परमात्मा अध्यात्मसाधना का सर्वोपरि साध्य है। वही अन्तिम ध्येय है। मनुष्य को अपने भीतर सोये हुए परमात्मभाव को जगाकर सर्वकर्मों को काट कर एक दिन परमात्म-लोक में पहुँचना है। यह परमपिता परमात्मा का तीसरा रूप है, जो जैनधर्म परम्परा द्वारा मान्य है।
१. वही, पृ. ७८
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