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कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? २७५
प्रकट करने की क्षमता नहीं है। भांग या शराब की भांति कर्मपरमाणुओं या अन्य परमाणुओं में शक्ति तो रहती है, पर उस शक्ति की अभिव्यक्ति आत्मचेतना (जीवित व्यक्ति) का सम्पर्क, सम्बन्ध या संग होने पर ही होती है। जीव भी कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों से सम्बन्ध (सम्पर्क-श्लेष) होने पर कर्मपरमाणुओं की उस-उस प्रकार की फलोत्पादन शक्ति से प्रेरित होकर ऐसी चेष्टाएँ या प्रवृत्तियाँ करता है, जो उसके लिए सुखकारक या दुःखकारक होती हैं।'
तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष चिन्तन से आत्मप्रदेशों में एक प्रकार की हलचल (कम्पन ) होती है। इसके परिणामस्वरूप कर्म पुद्गल आकृष्ट होकर चिपक जाते हैं। जैसे-कैमरा आकृति को, रेडियो ध्वनि को और चुम्बक लोहे के कणों को खींचता है वैसे ही रागादि परिणाम द्रव्यकर्म कार्मणवर्गणा को आकर्षित करते हैं।
___ आशय यह है कि जीव के कायिक, वाचिक और मानसिक परिस्पन्द (हलचल, क्रिया या प्रवृत्ति) के समय राग-द्वेषादि काषायिक भावों के निमित्त से जो कर्म-परमाणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होकर बंध जाते हैं, उन कर्मपरमाणुओं में शराब या दूध की तरह अच्छा या बुरा फल देने की शक्ति रहती है, जो चैतन्य के सम्पर्क से व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव डालती है। और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे कार्य करता है, जो उसके लिए सुखदायक या दुःखदायक होते हैं। इसका रहस्य यह है कि कर्म में अपने आप में सुख-दुःख प्रदान करने की शक्ति नहीं है, किन्तु यह शक्ति चेतन द्वारा (चेतन-संयोग से) ही प्राप्त होती है। चेतन का संयोग पाकर कर्म की फलदान शक्ति बलवत्तर हो जाती है, जिसके प्रभाव से देवेन्द्र, नरेन्द्र, एवं धर्मेन्द्र तीर्थंकरों तक को कठोर यंत्रणा भोगनी पड़ती है।
यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते हैं, तो बंधने वाले कर्म-परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और कालान्तर में उसका अच्छा ही फल मिलता है। इसी प्रकार यदि जीव के भाव बुरे होते हैं तो बंधने वाले कर्मपरमाणुओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है और कालान्तर में उसका फल भी बुरा ही मिलता है। मानसिक (मनोवर्गणा) पुद्गलों का चेतन पर प्रभाव - मानसिक भावों का अचेतन पदार्थ पर कैसे प्रभाव पड़ता है, और उस प्रभाव के कारण उस अचेतन पदार्थ का परिपाक कैसे अच्छा या बुरा होता है ? इत्यादि प्रश्नों के समाधान के हेतु हमें चिकित्सकों और वैद्यों के भोजन-सम्बन्धी नियमों पर दृष्टिपात करना चाहिए।
१. कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण पृ. ७७ २. पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री) से सारांश ग्रहण-पृ. १५
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