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३१४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
विनयपूर्वक क्षमा याचना करे तथा यथासम्भव क्षतिपूर्ति करे तो बहुत कुछ अंशों में व्यक्ति उक्त कृत पापकर्म के फल से बच सकता है।
शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य ही मिलता है।
भारत के जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, वे सब एक स्वर से स्वीकार करते हैं"कृत कर्मों का फल भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं ।" कृतकर्मों का फल देर-सबेर अवश्य ही मिलता है। हरिवंश पुराण में भी कहा है-“किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है। सैकड़ों कोटिकल्पों में बिना भोग कर्म का क्षय नहीं होता।" महाभारत में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है - हे सज्जन! यदि मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, निःसन्देह कोई संशय नहीं है कि वह उसका फल अवश्य ही प्राप्त करता है ।" ब्रह्मपुराण भी इसी तथ्य का साक्षी है- “हे ब्राह्मणो ! उस वर्ष में मनुष्य ने धर्म (पुण्य) या पाप जो भी किया है, उसका शुभ या अशुभ फल अवश्य ही प्राप्त करता है ।" दक्षस्मृति भी इसी का समर्थन करती है- “जो दूसरे के लिए सुख या दुःख उत्पन्न करता है, वह सुख या दुःख उसके जीवन में बाद में उत्पन्न होता ही है । "
वेदना और निर्जरा का अस्तित्व
सूत्रकृतांग सूत्र में कतिपय नास्तिक दार्शनिकों की मान्यता देकर उसका निराकरण किया गया है। वैसे दार्शनिक वेदना और निर्जरा के अस्तित्व को नहीं मानते। कर्म का फल भोगना 'वेदना' है और कर्मों का आत्मप्रदेशों से आंशिकरूप से अलग हो जाना - झड़ जाना ‘निर्जरा' है। इन दोनों के अस्तित्व को चुनौती देने वाले दार्शनिकों का तर्क है कि “ - अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों का अनेक कोटि वर्षों में क्षय करता है, त्रिगुप्तिसम्पन्न ज्ञानी पुरुष उन्हें एक उच्छ्वास मात्र में क्षय कर डालता है"; इस सिद्धान्त के अनुसार सैंकड़ों पल्योपम एवं सागरोपम काल में भोगने योग्य कर्मों का भी क्षय (बिना
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- उत्तराध्ययन ४ / ३
क "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।' (ख) अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः । - महाभारत वनपर्व अ. २०८ (ग) नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥ - हरिवंश पुराण उद्धृत अभि. २५ तत्सभाप्नोति पुरुषे नाऽत्र संशयः ।।
(घ) यत्करोत्यशुभकर्म शुभं वा यदि सत्तम! अवश्यं
- महाभारत वनपर्व अ. २०८
(ङ) तस्मिनवर्षे नरः पापं कृत्वा धर्मं च भो द्विजाः ! अवश्यं फलमाप्नोति अशुभस्य शुभस्य च ॥ (च) सुखं वा यदि वा दुःखं यत्किञ्चित् क्रियते परेः । ततस्तत्तु पुनः पश्चादात्मनि जायते ॥
- ब्रह्मपुराण
- दक्षस्मृति २१
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