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२९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
इसी प्रकार अज्ञानी मानव दूसरों के लिए अनेक क्रूर कर्म करता हुआ (दुःख के कारणों का निर्माण करता है), फिर दुःख (उन पूर्ववद्ध कर्मों) के उदय होने पर वह मृद बनकर विपर्यासभाव को प्राप्त होता है।" । कर्म सामूहिक, फल भी कथंचित् सामूहिक, कथंचित् व्यक्तिगत : क्यों और कैसे?
उपर्युक्त सूत्र से स्पष्ट ध्वनित हो जाता है कि कर्म चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक उदय में आने (फलभोग के सम्मुख होने) पर उस पर सुख-दुःख का संवेदन अपना-अपना पृथक्-पृथक् होता है। साथ ही इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि धन-संचित करने का (परिग्रह) कर्म व्यक्ति अकेला नहीं, कभी-कभी सारे परिवार या समाज के लोग सम्मिलित रूप से, अथवा करने, कराने तथा अनुमोदन करने (यों त्रिविध) रूप से करते हैं, उस संचित धन पर आसक्ति भी उक्त समूह की होती है। फलतः वे सब उक्त धन या सुख-साधनों का उपभोग करते हैं।
माना कि उक्त अर्थ के उपार्जन, संचय और संरक्षण में सबको पृथक् पृथक् सुख-दुःख का संवेदन होता है। बल्कि वर्तमान युग में तो बहुत-से लोग केवल येन-केन-प्रकारेण धन कमाने के पीछे पड़े रहते हैं, ताकि धन से बड़प्पन प्रदर्शित कर सकें, सुख-सुविधाएं जुटा सकें, इसके पीछे जो चिन्ता, तनाव, उद्विग्नता, स्वास्थ की बर्बादी, ईर्ष्या-द्वेष वृद्धि आदि होती है, उससे दुःख का संवेदन ही अधिक होता है। फिर भी उक्त अर्थ संग्रह के साथ जिन-जिन लोगों की आसक्ति जुड़ी हुई है, तथा जो जो व्यक्ति उसका उपभोग करते हैं, उनको भी उक्त कर्म का फल भोगना पड़ेगा ही। हाँ, वे अपने हिस्से में आई हुई सामग्री का उपभोग अनासक्त भाव से करें या आवश्यकतानुसार खर्च करें, शेष सम्पत्ति को जनता की शिक्षा, चिकित्सा, सहायता आदि सेवा कार्यों में लगाएं तो उससे पुण्य कर्म का उपार्जन भी कर सकते हैं। किन्तु जो व्यक्ति धन में मतवाला एवं स्वार्थपरायण होकर स्वयं या अपने परिवार को ही उपभोग का अधिकारी मानता है, उसे सावधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-वह संचित धन यदि पुण्यकार्य में नहीं लगाया गया तो वह दायाद, चोर, सरकार, अग्नि, बाढ़, भूकम्प आदि निमित्तों से नष्ट हो सकता है, फिर उस व्यक्ति के पल्ले पड़ेगा, उस धन के लिए किये हुए पाप कमों का स्वयं फल भोग। फिर जो अपनी मूढ़ता और विपरीत दृष्टि के कारण कर्म फलभोग के समय भी वह समभाव न रखकर, विषमभाव रखता है तो फिर उसके जीवन में नये-नये कों की बाढ़ आती रहती है। ऐसा मूढ़ व्यक्ति बार-बार जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता रहता है!
१. देखें-आचारांगसूत्र १/२/४/ सू. ८२ पर विवेचन और विश्लेषण; पृ. ५६ (आगम प्रकाशन
समिति, यावर)
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