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कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? ३०१
द्वारा तत्काल विपाक में आ जाता है। प्लेग या हैजा आदि किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त एक रोगी किसी गाँव में आ जाता है, और सारा गाँव अक्समात् उस रोग का शिकार हो जाता है। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है, कि उन दूसरे हजार लोगों ने तो अभी तो रोगोत्पत्ति का कोई कुपक्ष्य-सेवन आदि नहीं किया, फिर उन्हें उस रोग का अक्समात् शिकार होकर मृत्यु के मुख में क्यों जाना पड़ा ?
परन्तु कर्मविज्ञान का कथन है कि अभी तो उन्होंने कोई कुकृत्य नहीं किया, किन्तु उनकी आत्मा ने पूर्वकाल में सामूहिक रूप से ऐसा कोई कुकर्म अवश्य किया होगा, जिससे कर्मबन्ध हुआ है, और उसी पूर्वबद्ध कर्म का अकस्मात् इस निमित्त से एक साथ सामूहिक रूप में फल भोगना पड़ा है। कर्म के संस्कार तो जन्म-जन्मान्तर के चलते हैं। वे इस जन्म के भी हो सकते हैं, पूर्वजन्म या जन्मों के भी ।"
सामूहिक् या सामाजिक कर्मफल न मानने पर
इसलिए परेण उदीरितरूप में कर्मफल सामूहिक भी होता है, व्यक्तिगत भी । कर्म और कर्मफल को सामूहिक या सामाजिक नहीं मानने पर या तो वह आत्मा कर्म और कर्मफल दोनों से अस्पृष्ट, निरंजन- निराकार सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगी, या फिर वह समाज से बिलकुल अलग-थलग केवल व्यक्ति रह जाएगा! समाज तभी बनता है जब व्यक्ति एक दूसरे से प्रभावित होता है। इसी में सामाजिकता, अच्छी परम्परा तथा समाज के हित का विचार विकसित होता है। कर्मों का संक्रमण होता है, तभी समाज का निर्माण होता है। इसलिए जिस प्रकार कर्म वैयक्तिक के समान सामूहिक भी होता है, इसी प्रकार उसका फल भी वैयक्तिक के समान सामूहिक या सामाजिक भी होता है।
पूर्वोक्त सभी पहलुओं से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि कर्म और कर्मबन्ध तथा बद्ध कर्मों का फल वैयक्तिक भी होता है और सामूहिक या सामाजिक भी। सापेक्ष दृष्टि से सोचना ही जैन कर्मविज्ञान की विशेषता है।
१. कर्मवाद से भावांश ग्रहण, पृ. १८७
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