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२५८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) प्रत्येक जीव कर्म करने, फल भोगने, कर्म निरोध और कर्म क्षय करने में स्वतंत्र
निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक जीव कर्म के लिए जैसे स्वतंत्र है, वैसे ही स्वयं कर्मफल भोगने में भी तथा समभाव से कर्मफल भोग कर तथा नये कर्मों के आगमन को रोकने
और प्राचीन कर्मों को तप एवं संयम से क्षय करने में भी वह स्वतंत्र है। उसमें ईश्वर का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है। जड़ कर्म अपना फल कैसे देते हैं? संक्षिप्त समाधान
जैनकर्मविज्ञान पर यह आक्षेप है कि कर्म जड़ हैं, वे अपना फल कैसे प्रदान कर सकते हैं ? इसका समाधान हम अगले निबन्ध में विस्तार से करेंगे।' यहाँ तो इतना ही कहना है कि माना कि कर्म जड़ हैं, परन्तु जब जीव के साथ उनका सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क से कर्मों में ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि वे जीव पर अच्छा-बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। जिस प्रकार नेगेटिव और पोजिटिव तार अलग-अलग रहते हैं, तब उनसे बिजली पैदा नहीं होती, किन्तु जब वे दोनों तार मिल जाते हैं, तब उनमें बिजली की शक्ति पैदा हो जाती है और उससे हीटर, कूलर, पंखा, रोशनी आदि में स्विच ऑन करते ही स्वतः संचालन क्रिया हो जाती है। इसी प्रकार जीव (चेतन) के संयोग से कर्म में ऐसी शक्ति स्वतः पैदा हो जाती है कि वह अच्छे बुरे विपाकों (कर्मफलों) को नियत समय पर स्वतः प्रकट कर देता है।
जैन कर्म विज्ञान यह नहीं मानता कि चेतन के सम्पर्क के बिना ही जड़कर्म फल देने में समर्थ हैं; परन्तु यह अवश्य मानता है कि कर्मों का फल प्रदान करने के लिए ईश्वर रूप चेतन की प्रेरणा मानने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, उनमें रागादि विकारों के कारण कर्म परमाणु प्रविष्ट और श्लिष्ट हो जाते हैं और समय पर अपना फल देते हैं। कर्म कर्ता चाहे या न चाहे, कर्म अपना फल अवश्य देता है
___ सांसारिक जीव चाहे अल्पज्ञ हो, अपने सुख-दुःख को समझने में समर्थ न हो, कर्म-कर्ता चाहे या न चाहे फिर भी कर्म तो अपना फल स्वयमेव ही दे देते हैं। विषभक्षण कर लेने पर कोई व्यक्ति चाहे या न चाहे, विष अपना प्रभाव उस पर दिखलाता ही है।
इसलिए यह आक्षेप भी निराधार है कि प्रायः जीव बुरे कर्म (पाप) करते हैं, किन्तु उनका फल पाना या भोगना नहीं चाहते; क्योंकि सारे ही जीव चेतन हैं, वे जैसा कर्म करते हैं, उस समय परिणाम भी वैसे बन जाते हैं, बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है, १. कर्म अपना फल कैसे प्रदान करते हैं ? निबन्ध में विस्तार से विश्लेषण किया गया है। सं. २. कर्मग्रन्थ भाग १ (प्रस्तावना) (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) से, पृ. २९
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