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कर्मों का फलदाता कौन ? २५३
आशय यह है कि हिंसा आदि दुष्कर्म अथवा भगवद्भक्ति आदि सत्कर्म कदापि निष्फल नहीं होते। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म या जन्मों में उनका फल अवश्य ही मिलता है। इसलिए कर्म और कर्मफल के कार्य-कारण भाव में कभी अतिक्रमण (विपरीत) नहीं हो सकता ।'
भगवती सूत्र में तो स्पष्ट कहा गया है - "परलोक में किये हुए कई कर्मों का फल इस लोक में भोगा जाता है, इसी प्रकार इस लोक में किये हुए कई कर्मों का फल परलोक में भोगा जाता है।
केवल इतनी-सी बात के लिए ईश्वर को कर्मफल दाता बनाकर न्यायाधीश के सिंहासन पर बिठाने और अनेक दोषों से लिप्त करने की आवश्यकता नहीं है। वैदिक धर्म एवं जैन धर्म मान्य परमात्मा में परमात्मस्वरूप सम्बन्धी मतभेद
वैदिक धर्म और जैनधर्म की परम्परा में परमात्मा के सम्बन्ध में कर्ता-धर्ता और फलदाता को लेकर जरा-सा मतभेद है, किन्तु जैन-दर्शन परमात्मा की सत्ता को पूर्णरूपेण स्वीकार करता है। वह आत्मा, परमात्मा, लोक-परलोक, पूर्वजन्म- पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल आदि सभी बातों को मानता है। जैन-दर्शन अधात्म-साधना का लक्ष्य बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा बनना, आत्मा से परमात्मा बनना, परमात्म-पद प्राप्त करना बताता है। वह वैदिक दर्शनों की भाँति परमपिता परमात्मा को जगत् का कर्ता, भाग्य-विधाता, कर्म प्रेरक एवं कर्मफलदाता स्वीकार नहीं करता। . परमात्मा से सम्बन्धित तीन रूप
अध्यात्म जगत् में परमात्मा के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। सूक्ष्म रूप से चिन्तन करने पर उन मान्यताओं को तीन विभागों में विभक्त कर सकते हैं
प्रथम रूप- परमात्मा एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता, सर्वशक्तिमान् है, वही जगत् का निर्माता, त्राता, संहर्ता है। वही जगत् के जीवों का भाग्य-विधाता और कर्मफल-प्रदाता है। संसार में जो कुछ हो रहा है, वह सब परमात्मा के संकेत से ही होता है। उसके इशारे के बिना वृक्ष का एक पत्ता भी नहीं हिल
१. ( क ) या हिंसावतोऽपि समृद्धि : अर्हत्पूजावतोऽपि दारिद्र्यावाप्तिः सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य, पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम् । तत्क्रियोपात्तं तु कर्म जन्मान्तरे फलिस्यति इति नाऽत्र नियतकार्यकारणभाव व्यभिचारः ॥" - जैनाचार्य
(ख) कर्मवादः एक अध्ययन, से भावांश ग्रहण, पृ. ६९
२५ परलोगकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति, इहलोगकडा कम्मा परलोए वेइज्जति।
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- भगवती सूत्र श. १६
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