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कर्मों का फलदाता कौन ?
जीव को कर्मों का फल ईश्वर देता है : वैदिक आदि धर्मों का मन्तव्य
ईश्वर को जगत् का कर्ता-धर्ता-संहर्ता मानने वाले धर्मों और दर्शनों का यह मन्तव्य है कि जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, किन्तु उसका फल भोगने में परतंत्र है। अर्थात्-जीव के द्वारा कृत कर्मों का फल उसे भुगवाने वाला ईश्वर है, क्योंकि वह सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, जीव को अपने पिछले और इस जन्म में पहले किये हुए शुभ या अशुभ का स्वयं को ज्ञान नहीं होता। इस कारण संसारी जीव अल्पज्ञ होने के कारण स्वयं ही अपने पिछले जन्मों के और इस जन्म के पूर्व कृत कर्मों का हिसाब लगाकर उसका यथायोग्य शुभाशुभ सुफल अथवा दुष्फल या पुरस्कार अथवा दण्ड स्वयं ले ले, यह संभव नहीं है।
संसार में सभी प्राणी अच्छे ही कर्म करते हों, ऐसा नहीं है। अधिकांश जीव बुरे कर्म करते हैं। परन्तु कर्म के कर्ता जीव का यह प्रकृतिसिद्ध स्वभाव रहा है कि वह अपने अशुभ कर्म का फल पाना नहीं चाहता; कर्मजन्य प्रकोप से वह सदैव दूरातिदूर भागना चाहता है। दुःख, क्लेश एवं विपरीत परिस्थितियाँ उसके अनुकूल नहीं होती, ऐसी स्थिति में विपरीत आचरण एवं दुष्कर्म करने वाले जीवों को स्वकृत दुष्कर्म का फल कैसे मिलेगा? कौन देगा? अतएव अपने दुष्कर्म का और शुभकर्म करने वाले जीवों को उनके सत्कर्म का फल भुगवाने वाला कोई न कोई तटस्थ एवं सर्वज्ञ पुरुष चाहिए। वह निष्पक्ष पुरुष ईश्वर ही है, जिसे अन्य धर्म वाले गॉड, खुदा, अल्लाह, ईश, अकाल और परमात्मा आदि कहते हैं।
वैदिक संस्कृति के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में कहा गया है-“यह (सांसारिक) जीव अज्ञ है, अपने सुख और दुःख का, दूसरे शब्दों में अपने कर्म के अच्छे और बुरे फल का भान करने में, अर्थात्-अतीत और वर्तमान में कृत पूर्वकर्मों को जानने में, वह असमर्थ है। इसलिए वह कर्म करने में भले ही स्वतंत्र हो, कर्मफल भोगने में स्वतंत्र और समर्थ नहीं है। ईश्वर या कोई अदृश्य शक्ति उसे जैसा चाहती है, वैसा फल भुगवाती है। ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह स्वर्ग या नरक में जाता है।"
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