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२४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) तथाकथित ईश्वर सुयोग्य शासक के समान प्रभावशाली भी नहीं है
किसी प्रान्त में या राष्ट्र में सुयोग्य, न्यायशील एवं निष्पक्ष तथा भ्रष्टाचार से रहित शासक का शासन हो तो उसके प्रभाव से चोर, डाकू, हत्यारे एवं गुण्डे लोगों की चोरी आदि कुकर्म करने की सहसा हिम्मत नहीं होती। वे उद्दण्डता और उच्छृखलता का मार्ग छोड़कर प्रायः सत्पथ अपना लेते हैं, जिससे सर्वत्र शान्ति, सुरक्षा और अमन-चैन स्थापित हो जाता है। लोग निर्भयता पूर्वक सानन्द अपनी जीवन यापन करते रहते हैं।' परन्तु यह समझ में नहीं आता कि जगत् के सर्वोच्च शासक, सर्वशक्तिमान्, न्यायशील, परमकृपालु, परमपिता परमात्मा के होते हुए भी जगत् में बुराई, अराजकता, आपाधापी, भ्रष्टाचार, अन्याय, अनीति आदि अपराध दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। मांसाहारियों, व्यभिचारियों, यौन-अपराधियों, चोरों, डकैतों, विश्वासघातकों, लुटेरों एवं दुष्टों का दौर-दीरा बढ़ता ही जा रहा है। संसार में सर्वत्र छल-कपट, धोखा-धड़ी, ठगी, बेईमानी, चोरबाजारी, तस्करी, अराजकता, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध एवं तुच्छ स्वार्थ की अग्नि ज्वालाएँ उठती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में कैसे कहा जाए कि जगत के शासन की बागडोर ईश्वर के हाथों में है और वही संसार का सर्वोच्च शासक है, कर्मफलदाता, दण्ड-पुरस्कार प्रदाता हैं ? अव्यक्त रूप से दण्ड प्रदान करना भी कृतकृत्य ईश्वर का कार्य नहीं
ईश्वरकर्तृत्ववादी यों कह सकते हैं कि परमपिता परमात्मा यो प्रत्यक्ष दण्ड देता हुआ दिखाई नहीं देता, वह अव्यक्त रूप से दण्ड देता है तो किसी की आँखें फूट जाती हैं, किसी की टांग टूट जाती है, किसी को कोढ़ हो जाता है, किसी को कोई भयंकर रोग हो जाता है, किसी का घर, शरीर या अन्य पदार्थ जलकर खाक हो जाता है। इस प्रकार पापकर्मों का फल किसी न किसी रूप में ईश्वर दे ही देता है।
कृतकृत्य और दयालु ईश्वर के द्वारा जीवों को कर्मफल देने-दिलाने के सम्बन्ध में हमने पिछले पृष्ठों में कितनी ही दोषापत्तियाँ, अनुपपत्तियाँ और ईश्वरत्व में बाधाएँ बताई हैं। इसलिए कृतकृत्य ईश्वर को इन सांसारिक रगड़ों-झगड़ों से क्या लेना-देना है? उसका क्या स्वार्थ है ? अथवा ऐसा करने में क्या पसार्थ है ? बल्कि कर्मों का फल देते समय किसी को रुलाना, किसी को डराना, किसी को धमकाना, किसी को सताना, किसी के हाथ-पैर कटवा देना, किसी की आँखें पोड़ देना, किसी पर विपत्ति का पहाड़ ढहा देना, किसी को दाने-दाने का मोहताज बना देना, किसी के शरीर में असाध्य बीमारी पैदा
१. वही, से सारांश ग्रहण पृ. ७0 २. ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण, पृ.७०
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