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कर्मों का फलदाता कौन ? २४९
कर देना, किसी को अकस्मात् मार डालना, किसी को पानी में डुबा देना, किसी को आग में जला देना आदि ये और इस प्रकार के कठोर कर्म एक दयालु निर्विकार और कृतकृत्य ईश्वर भला कैसे कर सकता है ? यदि वह ऐसा हिंसात्मक दण्ड-प्रयोग करता है या उसे करना पड़ता है तो वह दयालु, निर्विकारी और कारुणिक कैसे रह सकता है ? ऐसे कठोर कर्म करने से तो उसकी निर्विकारता और दयालुता ही समाप्त हो जाती है।' ईश्वर प्रदत्त कर्मफल वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा विफल एवं प्रभावहीन
हम यह मान लें कि परमात्मा दया से प्रेरित होकर ही उन दुष्टों, अपराधियों या दुष्कर्म-कर्ताओं को कठोर दण्ड देता है। परन्तु उसके दिये हुए दण्ड को आज के उन-उन रोगों और व्याधियों के विशेषज्ञ बहुत कुछ अंशों में विफल कर देते हैं, अथवा प्रभावहीन कर देते हैं। ईश्वर को कर्मफल-दाता मानने वालों के समक्ष प्रश्न यह है कि ईश्वर के द्वारा जीवों को उनके कृतकर्मों का दिया गया दण्ड स्थायी एवं अमिट होना चाहिए, वह पूर्णरूप से क्रियान्वित होना चाहिए। उस दण्ड को कोई प्रभावहीन या असफल करने का साहस करे तो वह सफल नहीं होना चाहिए। मगर आधुनिक विज्ञान जगत् ने तथाकथित परमात्मा द्वारा कर्मफल के दिये गए उस दण्ड को बहुत अंश तक समाप्त कर दिया है या बहुत कम कर दिया है। उदाहरणार्थ-एक मनुष्य की एक आँख नष्ट हो गई। परमात्मा ने उसे उसके अशुभ कर्म के दण्ड के रूप में उसे काना बना दिया। परन्तु आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों ने नकली आँख उसकी फूटी हुई आँख की जगह फिट करके परमात्मा के दिये गए उक्त दण्ड को विफल कर दिया।
इसी प्रकार सांसारिक लोगों के कर्मों के फलस्वरूप परमात्मा द्वारा भेजी गई प्लेग, हैजा (कॉलेरा), क्षयरोग (टी. बी.) मलेरिया आदि दुःसाध्य बीमारियों को भी वर्तमान डॉक्टरों और चिकित्सकों ने अपने अथक शोध प्रयास के पश्चात् बहुत हद तक या तो समाप्त कर दिया है या फिर उनका प्रभाव बहुत कम कर दिया है। परमात्मा द्वारा दिये हुए दण्ड के कारण किसी की टाँग टूट गई, परन्तु वर्तमान वैज्ञानिक नकली टाँग लंगाकर उस दण्ड को बेकार कर देते हैं। ऐसा परमात्मा पूजनीय एवं सम्मान्य कैसे?
कई बार कर्मफल भुगवाने के लिए तथाकथित ईश्वर भूकम्प या बाढ़ लाता है, उस समय उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि जो उसके पूजा स्थान हैं, या धर्म-स्थान हैं, अथवा जो उसके भक्त या पुजारी हैं, उनकी भी तबाही हो रही है। क्या सर्वज्ञ एवं
१. कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण पृ. ७३ २. ज्ञान का अमृत से सारांश ग्रहण पृ. ६६
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