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२४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
"खुदा जब मुझसे पूछेगा कि 'तकसीर' किसकी है?
तो कह दूँगा कि इस तकदीर में तहरीर' किसकी है?" ईश्वर को कर्मफल दाता एवं भाग्य विधाता मानने से दोषापत्ति
पूर्वोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर को भाग्यविधाता या कर्मफल-दाता मानकर चलने से संसार के समस्त जीवों के द्वारा होने वाले पापों, दोषों या अपराधों का उत्तरदायित्व ईश्वर पर ही आ पड़ता है।
इसलिए जैनकर्मविज्ञान परमात्मा को जगत् के जीवों का भाग्यविधाता या कर्मफलदाता नहीं मानता।' परमात्मा को कर्मफलदाता मानोगे तो वह अन्यायी एवं अपराधी सिद्ध होगा
एक दोषापत्ति और भी है-परमात्मा को कर्मफल-प्रदाता मानने में कहा जाता है कि परमात्मा न्यायी है। यदि परमात्मा को किसी धनिक की धन-सम्पत्ति को चुरा या लुटवाकर उस धनिक को उसके पूर्वकृत अशुभ कर्मों का फल देना अभीष्ट है तो वह स्वयं तो उस कार्य को नहीं करता, किन्तु चोर-डाकुओं के माध्यम से ही उस धनिक को उसके अशुभ कर्मों का फल दिलवाएगा। ऐसी स्थिति में वह चोर या डाकू परमात्मा की आज्ञा का परिपालक या परमात्मा द्वारा प्रेरित होने के कारण निर्दोष और अदण्डनीय समझा जाना चाहिए, किन्तु व्यवहार में इससे विरुद्ध देखा जाता है, उस चोरी आदि पापकर्म करने वाले को अपराधी मानकर सरकारी पुलिस दल उसे पकड़ता है, उसे गिरफ्तार करके जेलखाने में लूंसता है, पुलिस दल उसे मारता-पीटता भी है, उलटा लटका देता है। कई अपराधियों को फाँसी आदि की सजा दी जाती है। यह सब दण्ड प्रक्रिया परम न्यायाधीश परमात्मा के न्याय के खिलाफ है, ऐसा मानना चाहिए। यह कितनी बड़ी अंधेरगर्दी होगी, परमात्मा के न्याय के विरुद्ध ? एक ओर तो परमात्मा धनिक को कर्मफल रूप दण्ड देने के लिए चोर, डाक आदि को उसके घर भेजता है, चोरी डकैती के लिए; और दूसरी ओर पुलिस के द्वारा उसे पकड़वाकर भारी सजा दिलाता है। यह तो वैसी ही बात हुई-चोर को कहे-चोरी कर और साहूकार को कहे-जागता रह। क्या यही परमात्मा का न्याय है ? परमात्मारूपी शासक अपराधों को रोकने का कार्य पहले से ही क्यों नहीं करता?
जगत् में यह देखा जाता है कि किसी शासनकर्ता को अगर यह मालूम हो जाता है कि अमुक व्यक्ति अमुक स्थान पर चोरी करना चाहता है, या अमुक डाकू दल फलां
१. (क) ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण
(ख) तकसीर गलती, दोष या अपराध। तकदीर भाग्य, तहरीर प्रेरणा या संचालन। २. वही, से सारांश उद्धृत पृ. ६५-६६
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