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कर्मों का फलदाता कौन ? २३५
ईश्वर ही सबके भाग्य का निर्माता, त्राता एवं विधाता है ___इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववादी जितने भी दर्शन, धर्म-सम्प्रदाय, मत और पंथ हैं; वे सब ईश्वर-परमपिता परमात्मा को जीवों का भाग्य निर्माता-भाग्य-विधाता मानते हैं। उनकी मान्यता है कि विश्व में जितने भी चर-अचर, स्थावर-जंगम (त्रस) छोटे-बड़े जीव हैं, सबके भाग्य (शुभाशुभ कर्म) महल का निर्माता, त्राता, और विधाता ईश्वर है। भाग्य एक प्रकार से पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म का फल है। फलितार्थ यह हुआ कि जीवों के पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का फलदाता ईश्वर है।' न्यायाधीश की तरह ईश्वर सबके कर्मों का न्याय करता है
इसे वे एक दृष्टान्त के द्वारा समझाते हैं। जैसे-लोकव्यवहार में यह देखा जाता है कि कोई आदमी किसी की हत्या करता है, या चोरी, डकैती, बलात्कार आदि दुष्कर्म करता है तो उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाला दण्ड वह स्वयं नहीं भोगता। अर्थात्-न तो वह दुष्कर्म उसे तत्काल दण्ड देता है, और न ही वह स्वयं उक्त दुष्कर्म का दण्ड ग्रहण करता है। उक्त दुष्कर्मी पर न्यायालय में अभियोग (केस) चलाया जाता है। न्यायाधीश उसे उस दुष्कर्म की सजा सुनाता है और उक्त दुष्कर्म का फल (दण्ड) भुगवाने के लिए अमुक अधिकारी आदि को आदेश देता है। इसी प्रकार ईश्वर समग्र सृष्टि का कर्ता-धर्ता एवं संचालक है। सृष्टि में जो-जो प्राणी जैसाजैसा कर्म करता है, उसे जगत् के जीवों के कर्मफल का नियंता ईश्वर न्यायाधीश की तरह यथोचित फैसला सुनाता है और उस-उस जीव को तदनुसार कर्मफल भुगवाता
जैनकर्म विज्ञान ईश्वर को फलदाता, भाग्य-विधाता नहीं मानता ". जैनकर्मविज्ञान ईश्वर को जीवों के कर्मफल का नियंता, फलदाता और भाग्यविधाता मानने से सर्वथा इन्कार करता है। अकाट्य युक्तियों, सूक्तियों, अनुभूतियों और प्रमाणों से जैनकर्मविज्ञान यह सिद्ध करता है कि निरंजन, निराकार, अशरीरी और कर्मों से सर्वथा मुक्त, सर्वदुःखों से रहित, वीतराग, परमात्मा को सांसारिक जीवों के कर्मों का फैसला करने वाले, कर्मफल-प्रदाता न्यायाधीश बनाने की आवश्यकता नहीं
जैनकर्म विज्ञान का स्पष्ट कथन है कि जीवों को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल ईश्वर नाम की कोई विशिष्ट चैतन्य शक्ति नहीं देती; न ही ऐसी कोई शक्ति फल देती हुई
१. ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) से भावांश ग्रहण पृ. ५६
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