________________
कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २२५ धार्मिक दृष्टिकोण से भी ईश्वरकर्तृत्व एवं फलदातृत्व असिद्ध है । ___ धार्मिक दृष्टिकोण से भी ईश्वर द्वारा सृष्टिकर्तृत्व एवं कर्मफलप्रदातृत्व सिद्ध नहीं होता। जब सभी कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है, वही करने-न करने तथा अन्यथा करने में समर्थ है, जीव को किसी भी प्रकार की करने-न करने तथा अन्यथा करने की स्वतंत्रता नहीं है। इसका मतलब है जीव अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता । स्पष्ट शब्दों में कहें तो जीव ईश्वर के हाथों की कठपुतली है। मनुष्य या अन्य प्राणी भी आज जैसा है, वैसा ही जीवन-पर्यन्त रहे, उसमें रद्दोबदल का उसे कोई अधिकार नहीं है। यह मान्यता धार्मिक सिद्धान्त के विपरीत है।
धर्म (संवर-निर्जरामय अथवा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयमय धर्म) की साधना व्यक्ति के जीवन परिवर्तन के लिए, जीवन के अभ्युदय के लिए एवं कर्मक्षय करके आत्मिक विकास के लिए है। यदि किसी भी प्रकार के परिवर्तन करने का अधिकार मनुष्य या किसी प्राणी को नहीं है तो अहिंसा आदि की साधना और बाह्य-आभ्यन्तर तपस्या का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जैनदर्शन ने प्रत्येक प्राणी को स्वयं कर्तृत्व का, स्वयं परिवर्तन का अधिकार दिया है। अगर ईश्वर कर्तत्ववाद या ईश्वर द्वारा फलदातृत्ववाद में परिवर्तन और प्रगति का अधिकार किसी प्राणी को नहीं है तो व्यक्ति की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप की, कर्म-मोक्ष की, या कृत्स्नकर्म-क्षय की (मोक्षमार्ग की) साधना निरर्थक हो जाती है। फिर तो यही माना जाएगा कि जिसका जैसा स्वभाव है, जितना आत्म विकास है, जितना आत्मनियमन है उतना ही और वैसा ही रहेगा, उसमें परिवर्तन को कोई अवकाश या अधिकार व्यक्ति को नहीं है।
जैनदर्शन जीव के द्वारा स्वयं कर्तृत्व को, स्वयं आलोद्धार को तथा स्वयं परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है। यही कारण है कि जैनकर्मविज्ञान व्यक्ति को क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्य, शोक, भय, जुगुप्ता (घृणा), मोह, मद, काम आदि मोहनीय कर्म के विकारों पर विजय प्राप्त करने की स्वतंत्रता देता है। इसी आधार पर प्रथम गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक पहुँचने की तथा अपने में • परिवर्तन की स्वतंत्रता जैनदर्शन देता है। ध्यान, स्वाध्याय, तप, आदि की तथा रत्नत्रय की साधना पद्धति का विकास परिवर्तन के सिद्धान्त पर आधारित है। ईश्वरकर्तत्ववाद व्यक्ति के परिवर्तन और विकास में बाधक है।' इसलिए धार्मिक दृष्टि से भी ईश्वरकर्तृत्ववाद मनुष्य की प्रगति और परिवर्तनशीलता में बाधक है।
जब धार्मिक दृष्टि से आत्मा को परिवर्तन और अभ्युदय का अधिकार नहीं है, तो ऐसे कर्ता-धर्ता ईश्वर का अस्तित्व मनुष्य के लिए हानिकर, संकटकारक और 9. जैन दर्शन और अनेकान्त से (भावांशग्रहण) पृ. १०६-१०८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org