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१२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जाती हैं, जबकि गुणस्थान एक जीव में अमुक काल तक चौदह में से एक ही हो सकता है। कर्मों के उत्तरोत्तर क्षय अथवा मोहकर्म के उत्तरोत्तर मन्दतर होने से पूर्व-पूर्व गणस्थानों को छोड़कर उत्तरोत्तर उच्च गुणस्थान प्राप्त किये जा सकते हैं और आध्यात्मिक विकास को वृद्धिंगत किया जा सकता है; किन्त पूर्व-पूर्व मार्गणाओं को छोड़कर न तो उत्तरोत्तर मार्गणा प्राप्त की जा सकती है, और न ही इनसे आध्यात्मिक विकास ही सिद्ध होता है।
तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त केवलज्ञानी तथा घातिकर्मचतुष्टयरहित जीव में कषाय को छोड़कर सभी मार्गणाएँ पाई जाती हैं, मगर गुणस्थान केवल एक ही तेरहवा पाया जाता है। इसी प्रकार चौदहवें गुणस्थान में भी तीन-चार मार्गणाओं के सिवाय सभी मार्गणाएँ होती हैं, जो विकास में बाधक नहीं हैं, पर गुणस्थान केवल अन्तिम चौदहवां होता है। जीवस्थान एवं मार्गणास्थान में कौन हेय, ज्ञेय, उपादेय?
जीवस्थान जीवों के शारीरिक विकास और इन्द्रियों की न्यूनाधिकता का बोधक है। जीवस्थान कर्मजन्य होने से हेय ही हैं। मार्गणास्थानों में जो अस्वाभाविक हैं, वे हेय हैं, किन्तु गुणस्थान विकास की श्रेणियाँ होने से ज्ञेय एवं उपादेय हैं। कर्मविज्ञान से इनके द्वारा यह ज्ञात हो जाता है कि इस स्थिति में वर्तमान जीव ने विकास की किस भूमिका पर आरोहण कर लिया है और विकासोन्मुखी आत्मा आगे किस अवस्था को प्राप्त कर सकेगी। - वस्तुतः मार्गणास्थान के ६२ भेदों में १४ जीवस्थानों तथा गुणस्थानों की सम्भावना का अन्वेषण करके जैनकर्मविज्ञान ने अपनी महत्ता सिद्ध कर दी है। अन्यदर्शनों में कर्म-सम्बन्धी वर्णन नाममात्र का है __अन्य कर्मतत्त्वनिरूपक दर्शनों एवं धर्मों में कर्मों के विषय में विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। योग दर्शन में हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय बताकर सामान्यरूप से को के बन्ध, मोक्ष और संवर-निर्जरा का संकेत जरूर किया गया है। इसी प्रकार बौद्धदर्शन
१. तृतीय कर्मग्रन्य (मरुधर केसरी जी महाराज) पृ. ३ २. मार्गणा के ६२ भेद-गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग ३, वेद ३, कषाय ४, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेश्या ६, भव्य २, सम्यक्त्व ६, संज्ञी २ तथा आहारमार्गणा २।
- कर्मग्रन्थ भाग ३ (मरुधर केसरी जी महाराज) पृ. ८ ३. देखें-योगदर्शन में-"हेयं दुःखमनागतम्। द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः। तदभावात् संयोगाभावो - हानं तद् दृशेः कैवल्यम्। विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः।"
-योगदर्शन साधनपाद सू. १६, १७, २५, २६
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