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२०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) आत्मा को शुद्ध निश्चयदृष्टि से कर्म-पुद्गलों का कर्ता मानना मिथ्या
समयसार में कहा गया है-आत्मा को शुद्ध निश्चय ( पारमार्थिक) दृष्टि से कर्म-पुद्गलों (पर-पदार्थों) का कर्ता मानना मिथ्या है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पारमार्थिक (निश्चय) दृष्टि से आत्मा को पर-पदार्थों का कर्ता मानने वालों को मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, व्यवहारमोही जीव कहा है। उन्होंने समयसार में इस तथ्य को अनावृत करते हुए कहा है- जो (निश्चयदृष्टि) से यह मानता है कि मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ और पर - जीव मुझे मारते हैं। वह मूढ है, अज्ञ है। जो यह मानता है कि मैं अपने द्वारा दूसरे जीवों को सुख-दुःखी करता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत ज्ञानी है; क्योंकि सभी जीव स्व-स्वकर्मोदय के द्वारा ही सुखी - दुःखी होते हैं ।"
समयसार की आत्मख्याति टीका में अमृतचन्द्रसूरि ने भी यही कहा है-आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करता है ? “अत:. आत्मा (पर-पदार्थों या कर्म-पुद्गलों का ) कर्ता है, (निश्चय दृष्टि से) ऐसा मानना व्यवहारी जीवों का मोह है। अज्ञानान्धकार से मुक्त आत्मा को जो (शुद्ध निश्चयनयदृष्ट्या) कर्ता मानते हैं, वे मुमुक्षु भले ही हों, सामान्य लोगों के समान उनकी भी मुक्ति नहीं हो सकती।””
शुद्धनिश्चयनय (पारमार्थिक) दृष्टि से आत्मा निज भावों का कर्ता है
जैनदर्शन सांख्यदर्शन की तरह पुरुष (आत्मा = जीव ) को सर्वथा अकर्ता नहीं मानता। वह शुद्ध निश्चयनयानुसार अपनी आत्मा के ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखरूप निजगुणों (स्व-भावों तथा उनकी पर्यायों) का कर्ता मानता है। कषाय पाहुड में कहा गया है - शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कोई भी द्रव्य दूसरे के परिणामों को नहीं कर सकता। इसलिए आत्मा पुद्गलरूप द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं, अपितु अपने स्व-भावों का ही कर्ता है। पंचास्तिकाय में भी इसी तथ्य का समर्थन किया है-"अपने भावों को करता हुआ आत्मा अपने (स्व) भाव का कर्ता है।" प्रवचनसार टीका में कहा गया है - " आत्मा अपने परिणाम से अभिन्न होने के कारण वस्तुतः स्व-परिणामस्वरूप भावकर्मों का ही कर्ता है, पुद्गलपरिणामात्मक द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं।” समयसार टीका में उपर्युक्त कथन को
१. ( क ) समयसार २४७-२५८,
(ख) वही, आत्मख्याति टीका ७९ क. ५० (ग) वही, टीका गा. ९७ क. ६२ (घ) वही, गा. ३२० कलश १९९
२. कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावम्स । नहि पोग्गलकम्माणं, इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ कम्मं पि समं कुव्वदि, सेण सहावेण सगमप्पाणं ॥”
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- आचार्य कुन्दकुन्द
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