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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २०९
उदाहरण देकर समझाया है-“जिस प्रकार कुम्भकार घट बनाते हए घट रूप से परिणमित न होने के कारण पारमार्थिकरूप से उसका कर्ता नहीं कहलाता; उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरणादि कर्मरूप में परिणमित न होने के कारण (अर्थात्-अपना स्वभाव-द्रव्य और गुण छोड़कर ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलद्रव्य वाला न होने के कारण) परमार्थरूप से उनका कर्ता नहीं हो सकता।" उपर्युक्त मन्तव्य से यह स्पष्ट है कि आत्मा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से अपने परिणामों (स्व-भावों) का कर्ता है पुद्गलरूप कर्मों का नहीं।' अशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भावकर्मों का कर्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं; क्यों और कैसे?
पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में कहा गया है-अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से शुभ-अशुभ परिणामों का परिणमन होना ही आत्मा का कर्तृत्व है। समयसार आत्मख्याति टीका में कहा गया है-“जो परिणमनशील होता है, वह कर्ता है।” अतः अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा राग-द्वेषादि भावकर्मों का, तथा शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञानदर्शन रूप शुद्ध भावों का कर्ता है। अर्थात्-अशुद्ध निश्चयनयानुसार अशुद्ध स्थिति में आत्मा राग, द्वेष, मोह आदि वैभाविक भावों का कर्ता है, अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय चतुष्टय और योगत्रय आदि पंचविध भावकों का. कर्ता है। वस्तुतः कर्म तो जड़ हैं।
किन्तु उन जड़ कर्मों के निमित्त से आत्मा में रागादि भावों का आविर्भाव होता है। आत्मा उन रागादि भावों में प्रवृत्त होती है। इस कारण वे जड़रूप भावकर्म भी चेतनवत् हो जाते हैं। वे आत्मा के वैभाविक भाव कहलाते हैं, स्वाभाविक भाव नहीं। इस दृष्टि से अशुद्ध स्थिति में आत्मा उन वैभाविक भावों का कर्ता कहलाता है। इस अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भावकर्म का (चेतनवत् कर्मसमूह का) कर्ता कहा जाता है, परन्तु उन भावकों के निमित्त से पुद्गलों में जो द्रव्यकर्म रूप परिणमन होता है (अशुद्ध निश्चयदृष्टि से) उसका वह कर्ता नहीं है।
१. (क) कषायपाहुड १, पृ. ३१८
(ख) पंचास्तिकाय ६१ (ग) प्रवचनसार टीका ३०
(घ) समयसार आ. टीका क. ७५/८३ २. (क) यः परिणमति स कर्ता
-समयसार आ.टीका गा.८६, कान (ख) पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, चूलिका गा. ५७ (ग) हुं.आत्मा छु, भा. २ (डॉ. तरुलताबाई स्वामी) से
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