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२२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
हैं, बताते हैं, और प्ररूपणा करते हैं कि भ्रमण निर्ग्रन्थों के मत में कर्म किस प्रकार दुःखरूप होते हैं ?” पूर्वोक्त चार भंगों में से वे यह नहीं पूछते कि जीव के द्वारा पूर्वकृत कर्म दुःखरूप होते हैं, या नहीं होते हैं ? वे यह पूछते हैं कि जीव के द्वारा जो कर्म पूर्वकृत नहीं हैं, क्या वे दुःखरूप होते हैं ? अर्थात् क्या अकृतकर्म प्राणियों को दुःख रूप फल प्रदान करते हैं? क्योंकि अन्यतीर्थिकों (अकृत कर्म को दुःख का कारण मानने वाले वादियों) का यह मत है कि जीव द्वारा कर्म किये बिना ही दुःख होता है। कर्मों का स्पर्श (बन्ध) किये बिना ही दुःख होता है। किये जाने वाले और किये हुए कर्मों के बिना ही दुःख होता है, तथा प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व कर्म किये बिना ही उसका फल वेदन करते - भोगते हैं। "क्या यह कथन सत्य है ?"
इसके उत्तर में भगवान् ने कहा- "जो लोग ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं, मेरा कथन तथा प्रज्ञापन-प्ररूपण इस प्रकार है - ( जीव द्वारा) कर्म करने से दुःख (रूप फल) होता है। कर्मों का स्पर्श करने से दुःख होता है, क्रियमाण और कृत कर्मों से दुःख होता है; तथा प्राण, भूत, जीव और सत्त्व कर्म करके उसका फल वेदन करते - भोगते हैं, ऐसे कहना चाहिए।""
दुःख का उत्पादक तथा फलभोक्ता : स्वयं जीव ही
भगवतीसूत्र में भी इसी प्रकार का प्रश्न उठाया गया है, कि दुःख कौन उत्पन्न करता है, कौन दुःख रूप फल भोगता है ? वहाँ भी आत्मा को दुःख का कर्ता और भोक्ता बताया गया है। २
कर्मबन्धन से बद्ध, कर्मबन्ध निष्पादयिता परिणामयिता ही कर्मभोक्ता है
प्रज्ञापना सूत्र के २३ वें कर्मपद में कर्म के कर्तृत्व के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने तीन शब्दों का प्रयोग किया है - " जीवेणं कडस्स, जीवेणं णिव्वत्तियस्स, जीवेणं परिणामियस्स" । इसका भावार्थ है- कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा ज्ञानावरणीयादि के रूप में निष्पादित (व्यवस्थापित) तथा जीव के द्वारा परिणामित
अण्णउत्थिया . एवं परूवेंति - कहण समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? तत्थ जासा कडा कज्जइ, नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कज्जइ, नो तं पुच्छंति; तत्थ जा सा अकडा नो कज्जइ, नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कज्जइ, तं पुच्छंति । से एवं वत्तव्वं सिया ?" अकिच्चं दुक्खं, अफुसं दुक्खं अकज्जमाणकडं दुक्खं अकट्टु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेति त्ति वत्तव्यं, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहेसु । अहं पुण एवमाइक्खामि ... एवं परूवेमि" किच्चं दुक्खं, फुस्सं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं कट्टु कट्टु पाणा भूया जीवा सता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वं सिया ॥
- स्थानांग
३/२/१६७ सू.
२. भगवतीसूत्र ६ /१०/२५७
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