________________
२१४. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) सांख्यदर्शन द्वारा कृत आक्षेप का निराकरण
सांख्यदर्शन का आक्षेप है कि “यदि द्रष्टा-भोक्ता आत्मा को जैनदार्शनिक कर्ता मानते हैं तो भुक्तात्मा को भी कर्ता मानना पड़ेगा। अतः आत्मा को कर्ता मानना सदोष है।" जैनदार्शनिकों ने इसका समाधान किया है कि हम मुक्त आत्मा को भी अकर्ता मानते ही नहीं हैं। उसमें भी सुख, चैतन्य, सत्ता, वीर्य और क्षायिक दर्शनरूप अर्थ क्रिया होने से वह अपने निजी आत्मगुणों का कर्ता-भोक्ता है। सांख्य-मान्य तथाकथित पुरुष अकर्त होने से आकाशपुष्पवत् असत् बन जाएगा। जो भोक्ता हो, वह कर्ता भी है, इस सिद्धान्त का मण्डन
सांख्य दार्शनिक कहते हैं-सांसारिक जीव सुख-दुःखादि के भोक्ता तो हैं, पर कर्त नहीं। सांसारिक जीवों को सुख-दुःखादि की अनुभूति होती है। जैनदार्शनिकों का कथन है कि जिस प्रकार आत्मा को भोक्तृत्व की अनुभूति होती है, उसी प्रकार 'मैं शब्द सुनने वाला हूँ,' 'मैं गन्ध सूंघने वाला हूँ' इत्यादि वाक्यों से सभी को आत्मा के कर्तृत्व की अनुभूति भी होती है। इसलिए भोक्ता की तरह पुरुष (आत्मा) कर्ता भी है। अतः सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी आत्मा को कर्मों का कर्ता और फलभोक्ता भी मानता है। जैनदर्शन सांख्य की तरह उपचार से नहीं, वास्तविक रूप से आत्मा को भोक्ता मानता है
- जैनकर्मविज्ञान की यह विशेषता है कि सांख्य दार्शनिकों की तरह केवल उपचार से कर्मफलों का भोक्ता न मानकर यह वास्तविक रूप से भोक्ता मानता है। “जिस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता माना गया है, उसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि से वह पौद्गलिक कर्मजन्य फल सुख-दुःख एवं बाह्य पदार्थों का भोक्ता है। इसके
(ग) अचेतनस्य पुण्य-पापकर्तृताऽनुपपत्तेर्घटादिवत् । -तत्त्वार्थवार्तिक २/90/9 (घ) तत्त्वार्थश्लोकवर्तिक २४६ (ङ) प्रधानेन कृते धर्मे मोक्षभागी न चेतनः ।
परेण विहिते भोगे तृप्ति भागो कुतः परः । . उक्त्वा स्वयमकर्तारं भोक्तारं चेतनं पुनः,
भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम्। श्रावकाचार (अमितगाते) ४/३४-३० (च) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ८१८ (छ) षड्दर्शनसमुच्चय टीका (गुणरत्नाचार्य) पृ. २३६ (ज) तत्त्वार्थ राजवार्तिक २/१०/१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org