________________
१२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
समीपवर्ती वायुमण्डल में हलचल उत्पन्न होकर उससे उत्पन्न लहरें दूर-दूर तक फैल जाती हैं। उन्हीं लहरों के पहुंचने से, बिना तार के वे शब्द एवं आकार रेडियो, टेलीविजन आदि में बहुत दूर-दूर तक पहुँच जाते हैं और उन्हें जिस स्थान पर चाहें वहीं पर अंकित कर सकते हैं। इसी प्रकार कार्मणवर्गणा के सूक्ष्म परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते हुए आत्मा के वास्तविक स्वरूप को, आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति आदि गुणों को आच्छादित कर देते हैं। वस्तुतः जैन कर्मविज्ञान कर्म को 'कम्प्यूटर' के समान बताता है, जो क्रिया करते ही उसके साथ राग-द्वेष की मात्रा एवं प्रकृति के अनुसार कर्म को कार्मणशरीर के रूप में आत्मा पर अंकित कर देता है।
जैन कर्म विज्ञान इन्हीं कर्म परमाणुओं को स्थूलरूप से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म; इन ८ मूल भागों में विभक्त करके उनकी १५८ उत्तर प्रकृतियाँ बताता है। इनका सूक्ष्म विश्लेषण, जिसमें प्रत्येक जीव के कण-कण और क्षण-क्षण में बँधने वाले, संचित (सत्ता में) रहने वाले, उदय में आने वाले, उदीरणा किये जाने तथा संक्रमित किये जाने वाले कर्मों का बारीक लेखा-जोखा है। साथ में इन आठों ही कर्मों के बन्ध के कारणों, सहकारणों, निमित्त कारणों आदि का भी वर्णन विस्तृतरूप से जैनकर्मविज्ञान में किया है। इन सबके अतिरिक्त जैन कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में भगवान महावीर ने संसार के प्राणियों विशेषतः मानवों को यह आशास्पद सन्देश दिया कि "चाहे करोड़ों भवों के कर्म संचित हो गए हों, बाह्य आभ्यन्तर तप के द्वारा उनका निर्जरण (क्षय) किया जा सकता है।" संचित कर्मों का क्षय : संवर और तप से वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध है
स्वयं श्रमण भगवान् महावीर ने अपने पूर्व जन्मों के संचित कर्मों को, जो उनसे पूर्व हुए २३ तीर्थंकरों के सारे कर्मों को मिलाकर बराबर थे, अपनी उग्र तपस्या द्वारा क्षय कर दिया। तभी तो अन्य सब तीर्थंकरों की अपेक्षा भ. महावीर के तप को आवश्यकनियुक्ति में उग्र तप बताया है। अतः कर्मविज्ञान ने वैज्ञानिक ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि संवर से नव्य कर्मनिरोध और तप (निर्जरा) से प्राचीन कर्मक्षय करके आत्मा को अक्रिय-सिद्ध-बुद्ध मुक्त बनाया जा सकता है। जैन कर्म विज्ञान की महत्ता के ये सर्वतोभद्र विलक्षण मापदण्ड हैं।
१. “भवकोडि-संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ।" -उत्तराध्ययन सूत्र २. 'उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो वद्धमाणस्स।' -आवश्यक नियुक्ति ३. सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संजमे।
अणासवे तवे चेव, वोदाणे अकिरिय सिद्धि ॥ -भगवती सूत्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org