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कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
जैसा कि “पंचास्तिकाय” में जीव के साथ संलग्न अनादि-अनन्त या अनादि-सान्त कर्मचक्र की परम्परा का निर्देश करते हुए कहा गया है- “जो जीव संसार में स्थित है, अर्थात्-जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उससे उसके राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं। परिणामों से नये कर्म बँधते हैं। कर्मों के कारण एक गति से दूसरी और दूसरी से तीसरी गति में जन्म लेना पड़ता है। उस उस गति में जन्म लेने पर शरीर प्राप्त होता है, शरीर के साथ इन्द्रियाँ अवश्य प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों से जीव विषयों का ग्रहण करता है। विषयों के ग्रहण के साथ ही उन पर राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्मों से भाव होते रहते हैं। जिनेश्वरों ने इस प्रवाह को अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि - अनन्त और भव्यजीव की अपेक्षा अनादि- सान्त कहा है।""
आत्मा कर्माधीन या इच्छास्वतंत्र ?
इसके कारण आम आदमी की यह एकांगी धारणा बन गई कि कर्मचक्र से कभी छुटकारा सम्भव नहीं है। यह आम धारणा भी बन गई कि प्राणी अपने पूर्वकृत कर्मों को भोगता जाएगा, और नवीन कर्मों को अर्जित करता जाएगा। इस कर्मपरम्परा का अन्त आना अत्यन्त दुष्कर होगा। कर्मचक्र का प्रवाह भी इसी प्रकार आगे से आगे चलता रहेगा। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष का परिणाम पुनः बीज रूप में प्रकट होता है, इसी प्रकार कर्म से फल और फल से पुनः कर्म, यानी राग-द्वेष, कषायादि के परिणामों से कर्म और कर्म के परिणामस्वरूप शरीरादि से पुनः रागादि परिणाम, इस प्रकार कर्म और परिणाम का चक्र चलता रहेगा। इन कर्मों को भोगते-भोगते जीव नये कर्म और अर्जित करता जाएगा, जो कालान्तर में या आगामी जन्म या जन्मों में फल देते रहेंगे। ऐसी स्थिति
प्राणी के प्राचीन कर्म स्वतः अपना फल देते रहेंगे, एवं उसकी निश्चित कर्माधीन स्थिति के अनुसार नवीन कर्म बंधते रहेंगे, जो भविष्य में समय पर अपना फल प्रदान करते हुए कर्मपरम्परा को स्वचालित यंत्रवत् आगे से आगे बढ़ाते रहेंगे।
यदि प्रत्येक क्रिया को कर्ममूलक माना जाए तो जीव का अपने पर या दूसरों पर कोई अधिकार नहीं रह जाता। उसकी समस्त क्रियाएँ सर्वथा कर्माधीन मानने पर वे
१. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगादस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते ।
हिंदु विसयहणं, तत्तो रागो य दोसो वा ॥१२९॥ जायदि जीवस्सेव भावो संसार चक्कवालम्मि | दिजिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥१३०॥
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- पंचास्तिकाय १२८, १२९, १३०
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