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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १७५
अपना फल देना प्रारम्भ कर देता है। उपशमन से कर्म की सत्ता समाप्त नहीं होती, सिर्फ उसे कालविशेष तक के लिए फल देने में असमर्थ बना दिया जाता है। यद्यपि कर्म की उपशमावस्था में अल्पकालावधि में कर्म-संस्कारों का प्रभाव हट जाने से जीव स्वयं को समयुक्त या शमयुक्त महसूस करता है, इस अवधि के पूर्ण होने पर उसका चित्त पुनः पूर्ववत् चिन्ताग्रस्त एवं क्षुब्ध हो उठता है। किन्तु उपशमकालिक क्षणिक समता या शमता के रस-पान की मधुर स्मृति अमिट होकर रह जाती ही।"
निधत्तः उदीरणा और संक्रमण से रहित, केवल स्थिति और रस की न्यूनाधिक का सूचक
(९) निधत्ति या निधत्त-कर्म की वह अवस्था निधत्ति या निधत्त कहलाती है; जिसमें उदीरणा और संक्रमण नहीं हो सकता, किन्तु उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है। अर्थात्-निधत्त-अवस्था में कर्म न अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकते हैं और न ही अपना फल प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसमें बद्ध कर्मों की काल मर्यादा और रस ( विपाक ) की तीव्रता को न्यूनाधिक किया जा सकता है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में निधत्त चार प्रकार का होता है।
निकाचन दशा : जिस रूप में कर्म बंधा है, उसी रूप में भोगने की अनिवार्यता
(१०) निकाचित या निकाचन - बद्ध कर्म की वह अवस्था, जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा, ये चारों अवस्थाएँ सम्भव न हों, वह निकाचनावस्था है। निकाचनावस्था में कर्मों का बन्ध इतना प्रगाढ़ होता है कि उनकी कालमर्यादा और तीव्रता (मात्रा) में कोई भी परिवर्तन या समय से पूर्व उनका फल भोग नहीं किया जा सकता। इस अवस्था में कर्म जिस रूप में बन्धा हुआ होता है, उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना पड़ता है। प्रायः उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती । कर्म की इस अवस्था का नाम नियति है। इसमें इच्छास्वातंत्र्य का सर्वथा अभाव रहता है। बद्ध कर्म की 'यह निकाचित अवस्था चार प्रकार की है, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप में। २ अबाधाकाल : कर्मों का फल दिये बिना अमुक अवधि तक पड़े रहने की दशा
(११) अबाधाकाल या अबाध - कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देने की अवस्था का नाम उसका अबाधाकाल या अबाध अवस्था है।
१. (क) धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. ९७-९८ (ख) कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) पृ. १७५
२. (क) धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. ९८
(ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. ४ पृ. २५
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