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कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति,
कहाँ संगति?
कर्मवाद भारतीय जन-जीवन में घुला-मिला ___ कर्मवाद भारतीय जनता का परिचायक शब्द है। किसी भी भारतीय से पूछ कर देख लें; उसकी निजी हालत, उसके परिवार की व्यवस्था और दशा; वह तपाक से यह कहता हुआ मिलेगा कि मैंने कोई ऐसा ही कर्म किया था, जिससे मुझे यह बीमारी हुई, अथवा निर्धनता और अभावपीड़ा प्राप्त हुई। अथवा यह कहता हुआ मिलेगा-“मेरे किसी पाप कर्म के कारण ही मुझे ऐसा निकृष्ट परिवार मिला।" ___ अगर किसी कार्य में सफलता मिलती है तो वह उसके लिए भी कर्म की दुहाई देता हुआ कहेगा-मेरे किसी पूर्वजन्म के पुण्य कर्म से मुझे इस कार्य में सफलता मिली। असफल होने वाला व्यक्ति भी अपनी असफलता का कारण दुष्कर्म को या दुर्भाग्य को ही बताएगा।
कहना होगा कि भारतीय जन-जीवन में कर्मवाद श्वासोच्छ्वास की तरह घुल-मिल गया है । भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने कर्मवाद पर कुछ न कुछ प्रकाश डाला है। कर्म की अच्छाइयों और बुराइयों पर अथवा कर्म की अजेय शक्ति और कर्म-विहीनता पर पर्याप्त चिन्तन भी दिया है। किन्तु कर्मवाद के सभी पहलुओं और इसके सभी अंगोपांगों पर जितनी गहनता से जैन-दर्शन ने प्रकाश डाला है, उतना किसी अन्य दर्शन ने नहीं डाला। कर्मवाद : आत्मवाद रूपी मूल पर स्थित त्रिलोकव्यापी वृक्ष
जैन-दर्शन के कर्मवाद की मुख्य आधारशिला आत्मवाद है। आत्मा को छोड़कर वह टिक नहीं सकता; क्योंकि कर्म अपने आप से (कर्म से) सम्बद्ध (संलग्न) नहीं होता, वह सम्बद्ध होता है-आत्मा से। इसलिए आत्मवाद की जड़ पर कर्मवादरूपी विशाल वृक्ष टिका हुआ है। आत्मा केवल एक ही नहीं, सारे विश्व की; नहीं नहीं-समग्र लोक कीतीनों ही लोक की समस्त आत्माएँ कर्म से सम्बद्ध होती हैं। इसमें ऊर्ध्वलोक की,
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