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१६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
भी वह विपाक देता है-द्रव्य(कर्मबन्धकर्तापात्र), क्षेत्र, काल, भाव, भव (जन्म) इत्यादि परिस्थितियों के अनुरूप।' बद्ध कर्मों की बन्ध से लेकर मोक्ष तक की ग्यारह अवस्थाएँ
कर्मविज्ञान की प्ररूपणा है कि यदि व्यक्ति जागृत और अप्रमत्त हो तो कर्म की कालमर्यादा एवं फलदानशक्ति की सीमा को समझकर एक झटके में कई-कई जन्मों के कर्मों तो तोड़ देता है। इसी तथ्य को अनावृत करने के लिए जैन-कर्मविज्ञान ने बन्ध से लेकर मोक्ष (सर्वकर्मक्षय) तक की दस या ग्यारह अवस्थाएं बताई हैं, जिन्हें करण भी कहा गया है, उन्हें समझना बहुत आवश्यक है। वे ये हैं-(१) बन्धन या बन्ध, (२) सत्ता, (३) उद्वर्तन-उत्कर्ष, (४) अपवर्तन-अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८) उपशमन, (९) निधत्ति या निधत्तकरण, (१०) निकाचित या निकाचन, और (११) अबाधाकाल या अबाधा
(१) बन्धन-बन्ध-आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बद्ध होना, अर्थात् नीर-क्षीर-वत् एकरूप हो जाना बन्धन या बंध है। यह चार प्रकार का है-(१) प्रकृति बन्ध, (२) स्थिति बन्ध, (३) अनुभाग (रस) बन्ध और (४) प्रदेशबन्ध। जैनकर्मवाद का बन्ध से बचने का शुभ सन्देश
जैनकर्म-विज्ञान ने बन्ध-करण का सर्वप्रथम उल्लेख करके उसके साथ ही बन्ध के कारण, बंध के प्रकार, बन्धकर्ता, तथा बन्ध-मार्गणा द्वारा बन्ध के नानाविध पहलुओं पर विस्तार से विवेचन किया है। इससे कर्मविज्ञान ने यह भी ध्वनित कर दिया है कि बन्ध के समय, बन्ध के कारणों तथा उससे सम्बन्धित तमाम विषयों पर विचार करके सावधान रहे। वह मन-वचन-काया की प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया के समय सिर्फ उसका ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहे, उसके प्रति न प्रीति हो, न अप्रीति, न राग हो, न द्वेष। अर्थातमन, वचन, काया, इन्द्रिय, बुद्धि, चित्त आदि द्वारा कोई व्यक्ति, वस्तु, विषय, घटना, परिस्थिति आदि मनोज्ञ या अनुकूल हो तो उसके प्रति रागरूप और प्रतिकूल या.अमनोज्ञ हो तो द्वेष रूप प्रवृत्ति करने से बन्ध होता है। ___ जैनकर्मविज्ञान का सिद्धान्त है कि जैसी और जितनी मात्रा में राग-द्वेषमय प्रवृत्ति होती है, वैसे ही कर्म बंधते हैं। तथा राग-द्वेष की जितनी न्यूनता-अधिकता होती है,
१. कर्मवाद पृ. १२८ २. (क) गोम्मटसार गा. ४३८-४0
(ख) जैनधर्मदर्शन पृ. ४८५ - ३. इनका विस्तृत विवेचन बन्ध खण्ड में देखें।
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