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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १६९
उतनी ही उक्त बन्ध के टिकने की प्रबलता-निर्बलता एवं उसके फल की न्यूनाधिकता होती है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि राग-द्वेष न करे या कम से कम करे, ताकि कर्मबन्ध कम से कम हो। जो आत्मौपम्य दृष्टि वाला समदृष्टि समभावी या यतनाशील रहता है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता। अतः व्यक्ति को कर्मबन्ध से बचने हेतु राग-द्वेष से दूर रहना चाहिए। यही कर्मवाद का सन्देश है।'
(२) सत्ता-यह कर्म की दूसरी अवस्था है। सत्ता का सामान्य अर्थ होता है-अस्तित्व। यहाँ यह पारिभाषिक शब्द है। बद्ध कर्म अपना फल प्रदान करके जब तक आत्मा से पृथक् नहीं हो जाते, अर्थात्-क्षय (निर्जरा) होने तक आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं, इसी अवस्था का नाम सत्ता है। दूसरे शब्दों में बंध होने और फलोदय होने के बीच कर्म आत्मा में विद्यमान रहते हैं, वही सत्ता है। अर्थात्-फलप्राप्ति से पहले की अवस्था सत्ता-अवस्था है।
‘पंचसंग्रह' में इसका लक्षण किया गया है-“पूर्वसंचित कर्म का आत्मा में अवस्थित रहना सत्ता है। इस अवस्था में कर्मों का अस्तित्व आत्मा में रहता है, पर वे फल प्रदान नहीं करते। इसे दिगम्बर परम्परा में सत्व भी कहते हैं। प्रत्येक कर्म अपने सत्ताकाल के समाप्त होने पर ही फल दे पाता है। जब तक कर्म की कालमर्यादा परिपक्व नहीं होती, तब तक उस कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध बना रहता है, उस अवस्था का नाम ही सत्ता
(३) उदय-कर्मों के स्वफल देने की अवस्था का नाम उदय है। यदि उदय में आने वाले कर्म-पुदगल अपना फल देकर निर्जीर्ण हो जाएँ तो वह फलोदय कहलाता है, और फल दिये बिना ही कर्म नष्ट हो जाए तो प्रदेशोदय कहलाता है। सत्ता में स्थित इन प्रसुप्त संस्कारों का जागृत या फलोन्मुख होना 'उदय' कहलाता है। वस्तुतः जब कर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं, उस अवस्था को उदय कहते हैं।
वास्तव में, किसी एक कार्य द्वारा किसी एक समय में बन्ध को प्राप्त संस्कार उत्तरक्षण में उदित होकर अथवा अपना फल देकर समाप्त हो जाए, ऐसा प्रायः नहीं होता। जितनी स्थिति लेकर वह कर्म बंधा है, अर्थात्-जितने काल तक स्थित रहने की शक्ति को लेकर वह उत्पन्न हुआ है, उतने काल तक व्यक्ति को बराबर उसका फल प्राप्त होता रहता है। उतने काल तक उसे उसकी प्रेरणाएँ बराबर प्राप्त होती रहती हैं, अनिच्छा से भी उतने काल तक व्यक्ति को उसका अनुसरण करना पड़ता है। इस प्रकार
१. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित करण सिद्धान्त : भाग्य निर्माण की प्रक्रिया' से
पृ. ७८ २. पंचसंग्रह (प्राकृत) ३/३
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