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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १७१
जाते हैं, तब उदयगत कहलाते हैं। इस प्रकार बन्ध, उदय और सत्ता, इन तीनों कार्मिक अवस्थाओं का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । '
उदीरणा : उदय में आने से पूर्व ही कर्मफल भोग का उपाय
(४) उदीरणा - पूर्वबद्ध कर्म का नियत काल में फल देना 'उदय' है, जबकि नियतकाल से पूर्व ही कर्म का उदय में आना और फल दे देना उदीरणा कहलाती है। अर्थात्-कर्म की उदयावस्था और उदीरणावस्था में अन्तर यह है कि पहली में परिपाक को प्राप्त कर्म स्वयं अपना फल दे देते हैं, जबकि दूसरी में अपाक (अपक्च) कर्मों को समय से पूर्व ही किसी प्रयत्न-विशेष से या अनुष्ठान आदि किसी निमित्त से पकाकर फल प्राप्त किया जाता है।
आशय यह है कि जिस प्रकार पकने के समय से पूर्व ही कृत्रिम रूप से फलों को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार उदीरणा में अपक्व का प्रयत्न - विशेष या साधनाविशेष से पाचन किया (पकाया जा सकता है। जिन पूर्व-संचित कर्मों का अभी तक उदय नहीं हुआ है, उनको बलपूर्वक नियत समय से पूर्व उदय में लाकर फल भोग लेना या भोगने के लिए पका कर फल देने के योग्य कर देना उदीरणावस्था है।
उद्गीरणा का सामान्यं नियम यह है कि जिस कर्म-प्रकृति का उदय या भोग चल रहा हो, उसी की सजातीय कर्मप्रकृति की उदीरणा हो सकती है। जैन कर्मविज्ञान की यह विशेषता है कि वह कर्म का फल भोग एकान्ततः नियतकाल में ही हो, इसमें विश्वास नहीं करता, साधना द्वारा आत्मा की शक्ति का वीर्योल्लास प्रगट हो तो विपाक के नियतकाल से पूर्व भी उसका फल भोगा जा सकता है।'
उद्वर्तन द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि
(५) उद्वर्तन=उत्कर्षण- सामान्य नियम यह है कि बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस का निश्चय कर्म-बंध के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता - मन्दता के अनुसार होता है । किन्तु जैन कर्मविज्ञान बताता है - एकान्तरूप से यह नियम नहीं है। कोई सत्त्वशाली आत्मा नवीन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति (कालमर्यादा) और अनुभाग (काषायिक रस की तीव्रता ) में वृद्धि भी कर सकता है। इस विधान के अनुसार पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति विशेष और अनुभाग ( भावविशेष) का बाद में किसी अध्यवसाय-विशेष के द्वारा बढ़ जाना उत्कर्षण या उद्वर्तना है।
१. कर्मरहस्य ( ब. जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १७२ / २४
२. (क) धवला पु. ६ खं. १ भा. ९-८ सू. ४.
(ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन ) पृ. १९६
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