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१४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जैन कर्मविज्ञान की सर्वोत्कृष्ट विशेषता ___जैन कर्मविज्ञान की सर्वोत्कृष्ट विशेषता यह है कि उसके द्वारा प्ररूपित संक्रमण आदि के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजन्म में या इस जन्म में पूर्वकृत दुष्प्रवृत्तियों (दुष्कर्मों) के कारण बंधे हुए अशुभ एवं दुःखद पाप कर्म प्रकृतियों को अपनी सजातीय पुण्यप्रकृतियों में परिवर्तित कर सकता है, उन पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग के वर्तमान में अपनी शुभ प्रवृत्तियों-क्रियाओं से शुभ कर्म बांध कर घटा सकता है और शुभ एवं सुखदायक पुण्यकर्मों में संक्रमित कर सकता है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि पूर्वबद्ध कर्म उसी प्रकार उतने लम्बे समय तक भोगने पड़ें। व्यक्ति चाहे तो अपने वर्तमान कर्मों के माध्यम से पूर्वबद्ध कर्मों को बदलने, अदल-बदल करने, तथा स्थिति एवं अनुभाग (रसादि की तीव्रता) को घटाने-बढ़ाने तथा शीघ्र क्षय करने में पूर्णतः समर्थ एवं स्वतंत्र है। साधक संयम में उत्कृष्ट पुरुषार्थ करे, उत्कृष्ट भाव रसायन लाए तो गुणस्थान-क्रम से आरोहण करता हुआ कर्मों का क्षय करता हुआ, अन्तर्मुहूर्त में केवल ज्ञान को उपलब्ध कर सकता है।'
१.
वही, पृ. ८९
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