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१५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
__यह हुआ एक साथ ५00 चोरों का जीवन-परिवर्तन! इसी प्रकार एक व्यक्ति में भी परिवर्तन होता है। वह अशुभ कर्म को छोड़कर शुभ कर्म में प्रवृत्त होता है, अथवा शुद्ध अबन्धक कर्म में। परन्तु प्रायः व्यक्ति में यह परिवर्तन होता है-अपने से प्रश्न पूछने से। अपने आप से-अपनी आत्मा से स्वयं बात करने से। __इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में एकान्त में, रात्रि के प्रथम अथवा अन्तिम पहर में, साधक को स्वयं कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में आत्मसम्प्रेक्षण-अपनी आत्मा से प्रश्न पूछने का निर्देश किया गया है कि मैंने क्या किया है ? कौन-सा कृत्य करना शेष है? और कौन-सा ऐसा सत्कार्य (सुकर्म) है जिसे मैं कर सकता हूँ फिर भी नहीं कर पा रहा हूँ ? मेरे कर्म को (मुझे) दूसरा किस दृष्टि से देख रहा है ? और मेरी अपनी आत्मा (अपने कर्म के विषय में) क्या सोचती है ? कौन-सी ऐसी स्खलना है, जिसे मैं छोड़ नहीं रहा हूँ ? साधक इस प्रकार (कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में) स्वयं अनुशीलन-अनुवीक्षण करता हुआ, उसे भविष्य पर न छोड़े, तत्काल ही उस कृत्य या स्खलना (भूल) को सुधार ले।''
__ आगमों में यत्र-तत्र ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि कर्मविज्ञान द्वारा कर्म या कर्मफलपर चिन्तन करते-करते व्यक्ति का जीवन एकदम बदल गया।
शालिभद्र की माँ ने कहा था-“बेटा! ये अपने सिरताज, अपने मगधदेश के अधिपति, अपने नाथ श्रेणिकनृप पधारे हैं।" इस वाक्य पर शालिभद्र के अन्तर में मन्थन हुआ-“क्या मेरे सिर पर भी कोई अधिपति है ? क्या मेरी आत्मा ऐसा कर्म (अबन्धक कर्म) करके अपनी अधिपति नहीं बन सकती ? मुझे अपना नाथ, अपना सिरताज स्वयं बनना है। कैसे बनूं?" इसी मन्थन-चिन्तन ने धनकुबेर एवं वैभव में आकण्ठ डूबे हुए शालिभद्र को विरक्तात्मा निर्ग्रन्थ अकिंचन अनगार शालिभद्र मुनि बना दिया। वे कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ एवं प्ररूपक श्रमण भगवान् के उपदेश से कर्म से अकर्म की स्थिति में पहुंच गए।
पंचेन्द्रिय विषयों में मग्न, भोगविलासों में डूबे हुए, वैभव में सराबोर समुद्रपाल का भी जीवन वध्यस्थान पर ले जाते हुए एक चोर को देखकर सहसा बदल गया। उसने शोभायात्रा में वध्य-व्यक्ति की वेशभूषा में सज्जित एक चोर को देखकर अपने आपसे कहा-अहो ! यह अशुभ कर्मो-पापकर्मों का ही फल है, जिसके कारण इसे मृत्युदण्ड मिल रहा है। यह इसके पापकर्मों का ही दण्ड है, जिन्हें करने, न करने में यह स्वतन्त्र था, किन्तु इसने अपने पापकर्मों का त्याग नहीं किया, जिसके कारण इसे मृत्युदण्ड मिल रहा है। मैं भी अगर मनुष्य जन्म पाकर भोगों में फंस गया तो फिर कभी या किसी जन्म में मुझे
१. देखें-दशवैकालिक सूत्र में आत्मसम्प्रेक्षण की विधि-दशवैकालिक द्वितीय चूलिका की गाथा
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