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१६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
कैसे होते? यदि रोग या मरण केवल कर्मजन्य है तो मृत्यु दर कैसे घट गई ? बच्चों का अकाल में काल-कवलित होना भी तो कर्मजन्य माना जाता था मगर आज बालकों की सुरक्षा, रोगों की रोकथाम वैज्ञानिक ढंग से की गई है। फिर कर्म का प्रकोप कहाँ गया? किन्तु जब सामान्य मानव के समक्ष यह तथ्य प्रतिपादित किया जाता है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही, उसी रूप में उसे उसका फल भोगना पड़ता है। इस प्रकार के एकांगी प्रतिपादन से मनुष्य के सत्पुरुषार्थ का आशामय दीपक बुझ जाता है, वह ज्ञात-अज्ञात रूप से अज्ञानान्धकार में भटक जाता है। वह यों समझने लगता है कि मैं स्वयं कर्म के आगे अशक्त हूँ, असहाय हूँ, क्या कर सकता हूँ? जैसा पूर्ववद्ध कर्म है, उसका वैसा ही फल मुझे प्राप्त होगा। ऐसी मिथ्या धारणा का शिकार बनकर मनुष्य दीनता-हीनता-निर्धनता, अशिक्षा, बीमारी एवं रूढ़िग्रस्तता व अव्यवस्था को जिंदगीभर ढोता रहता है। कर्मवाद : सत्पुरुषार्थयुक्त आशावाद-सूचक ___ परन्तु कर्मवाद निराशा उत्पन्न नहीं करता, वह सत्पुरुषार्थयुक्त आशावाद का प्रेरक है। अगर कर्मवाद को सही माने में समझें तो सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट प्रतीत होगा कि कर्मवाद का सिद्धान्त आत्मा के अन्धकारपक्ष और उज्ज्वलपक्ष दोनों को अभिव्यक्त करता है। वह आस्रव और बन्ध के अन्धकारयुक्त मार्ग को भी बताता है, तो साथ ही वह संवर, निर्जरा और मोक्ष के प्रकाशयुक्त पथ का भी प्रदर्शन करता है। कर्मवाद के रहस्य से अनभिज्ञ व्यक्ति : निराश, निष्क्रिय और पुरुषार्थहीन ___ परन्तु कर्मवाद के रहस्य से अनभिज्ञ व्यक्ति प्रायः आस्रव और बन्ध के फल का विचार करके, कर्मवाद को भयंकर और कर्म को मनुष्य का शत्रु समझकर हताशनिराश होकर बैठ जाता है, अथवा भाग्य के भरोसे निष्क्रिय व पुरुषार्थहीन होकर बैठ जाता है। या फिर वह भगवान् के भरोसे बैठा रहता है। परन्तु अपने निजी पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करता। पुरुषार्थ से अशुभ कर्मों को, शुभ कर्मों में बदला जा सकता है, कर्मों
की स्थिति, फलदानशक्ति एवं कर्मों के जत्थे को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। यह हम पिछले निबन्ध में संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन और उदीरणा के सन्दर्भ में विस्तार से बता आए हैं। संक्रमण आदि का सिद्धान्त निराशानाशक सत्पुरुषार्थ का सिद्धान्त है। वह निराशावाद या पराजयवाद का सूत्र नहीं है। जैन कर्मवाद ही परिवर्तन सिद्धान्त का प्रेरक
अपने सत्पुरुषार्थ पर विश्वास रखकर कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार चले, अथवा उसका ठीक उपयोग करे तो व्यक्ति अपने पूरे व्यक्तित्व को बदल सकता है,
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