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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १३१ जैनकर्मविज्ञान की विशेषता : आत्मा के परिणामी-नित्य होने का स्वीकार
इस प्रकार कर्म के फलभोग के लिए इस स्थूल शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करने वाला स्थायी एवं शाश्वत तत्त्व आत्मा को माना है। शुभाशुभ कर्मों के फलभोग के साथ कर्मविज्ञान आत्मा की अमरता-शाश्वतता के सिद्धान्त को स्वीकार करता है किन्तु साथ ही प्रत्येक गति और योनि में कर्मानुसार कार्मण शरीर के माध्यम से आत्मा के गमन के तथ्य को स्वीकार करके आत्मा को उसने परिणामी-नित्य माना है। जबकि सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, वेदान्त आदि दर्शन आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानते है।उनके इस मतानुसार आत्मा का विभिन्न गतियों और योनियों में परिभ्रमण सिद्ध नहीं होता। एक ओर आत्मा की नित्यता का स्वीकार इसलिए किया है कि ऐसा न मानने पर बौद्ध दर्शन की तरह कृतप्रणाश और अकृतभोग के दोष उपस्थित होते हैं। दूसरी ओर उसे परिणामी मानकर स्वतन्त्र गतियों और योनियों में परिभ्रमण न होने के दोष का परिहार किया है। कर्मविज्ञान की दीर्घदर्शिता से अन्तिम ध्येयप्राप्ति का विवेक ___ कर्मविज्ञान की दीर्घदर्शिता के कारण एक लाभ यह है कि व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के कर्मानुसार वर्तमान जीवन की प्राप्ति से प्रेरणा लेकर भावी जीवन को अशुभ कर्मों से बचाकर शुभ कर्म करके अल्पकर्मा होकर या तो उच्च देवलोक प्राप्त करता है, अथवा सम्पूर्ण कर्मों को इसी जन्म में क्षय करके कर्मों से सदा-सदा के लिए मुक्ति प्राप्त कर लेता है, वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वदुःखों से रहित हो जाता है।' जैन कर्म विज्ञानः मानवजाति से भी आगे प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत् भाव का
पुरस्कर्ता
कर्म विज्ञान-वेत्ता इस प्रकार की त्रिकालस्पर्शी दीर्घदर्शिता के कारण अशुभ कर्मों के बन्ध से बचने हेतु अपने सम्पर्क में आने वाले परिवार, समाज, जाति, नगर-ग्राम, प्रान्त, राष्ट्र, अथवा विश्व के मानवों के साथ ही नहीं, प्राणिमात्र के साथ सर्वभूतात्मभूत एवं समदर्शी होकर मानसिक वाचिक कायिक प्रवृत्ति या व्यवहार करता है। इतना ही नहीं, पृथ्वीकायादि षटकायिक जीवों के प्रति संयम से रहता है, हिंसा आदि आनवों से दर रहता है, ताकि नये कमों का आगमन एवं बन्ध न हो; वह देह, गेह, धन, धान्य तथा अन्य भौतिक निर्जीव पदार्थों के प्रति भी रागद्वेष या कषाय, मोह, कामना, आसक्ति,
9. "सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिदिए।"-उत्तराध्ययन अ.१, गा. ४८ २. “सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाइ पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ।''
-दशवैकालिक अ. ४ गा. ९
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