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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १३९
करता है अथवा मन ही मन दूसरे का बुरा करने की घृणित बात सोचता है। उसका यह मानसिक या कायिक कर्म उसे क्या फल देता है ? उसके शरीर में ईर्ष्या आदि से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। ___वर्तमान मनोविज्ञान भी यही बात कहता है कि किसी को नुकसान पहुँचाने, अहित करने या किसी के प्रति ईर्ष्या-घृणादि करने से अल्सर, कैंसर, खुजली आदि कष्टसाध्य बीमारियाँ हो जाती हैं। मानसिक बीमारियों का कारण वे मानसिक क्रियाएँ हैं, तथा शारीरिक बीमारियों की कारण हैं शारीरिक क्रियाएँ।
जैन कर्मविज्ञान हमें परोक्षरूप से प्रेरित करता है कि अगर हमें कर्मों में फलदान शक्ति उत्पन्न नहीं होने देनी है, अथवा पहले तीव्र रूप से बंधी हुई फलदान शक्ति को मन्द करनी है, तो हम राग-द्वेष, आसक्ति या कषाय या तो उत्पन्न न होने दें, या फिर तीव्र राग-द्वेष, कषाय आदि न करें जिससे कर्मपरमाणुओं में ऐसी संरचना न होने दें, ऐसी फलशक्ति पैदा न होने दें, जिसका फल अशुभ (बुरा) हो, जो हमें ही भोगना पड़े।' जैन कर्मविज्ञान का विशिष्ट नियम : जाति-परिवर्तनः प्रकृति संक्रमण . कर्मविज्ञान का एक विशिष्ट नियम है-शक्तिपरिवर्तन, जिसमें कर्म की फलदानशक्ति को न्यूनाधिक किया या घटाया-बढ़ाया जा सकता है। दूसरा विशिष्ट नियम है-जाति-परिवर्तन। इसके द्वारा कर्म की जाति को बदला जा सकता है। बन्धकाल में एक प्रकार के कर्म परमाणुओं के हुए बंध को बाद में दूसरे प्रकार के कर्मपरमाणुओं में बदल देना जाति-परिवर्तन है। जैसे आजकल नस्ल-परिवर्तन हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों की जाति में परिवर्तन हो जाता है।
वर्तमान में वनस्पति विज्ञान विशेषज्ञ कलम लगाकर खट्टे फल देने वाले पौधे को मीठे फल देने वाले पौधे के रूप में तथा निम्नजाति के बीजों को उन्नत जाति के बीजों में परिवर्तित कर देते हैं। इसी प्रकार पूर्व में बंधी हुई पुण्यप्रकृतियों में समग्र कर्मपरमाणुपुंज पुण्य से समन्वित है, किन्तु बाद में ऐसा पापकर्म का पुरुषार्थ हुआ कि वे पूर्वबद्ध पुण्य प्रकृतियाँ पापकर्म प्रकृतियों में बदल गईं। पुण्य के परमाणु-सुख देने वाले कर्म परमाणु, पाप के-दुःख देने वाले रमाणु बन गए। इसी प्रकार पाप के बद्धकर्म परमाणु कालान्तर में घोरतप, परीषह सहन, उपसर्ग-विजय, चारित्रपालन आदि के कारण पुण्य के परमाणु के रूप में परिवर्तित हो गए। दुःख देने वाले समग्र परमाणु सुख देने वाले परमाणु के रूप में बदल गए। १. कर्मवाद से पृ. ३७ २. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशितः ‘करणसिद्धान्तः भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया,' लेख
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