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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता
संक्रमण सिद्धान्त के दो रूप : मार्गान्तरीकरण और उदात्तीकरण
जैन कर्मविज्ञानसम्मत संक्रमण का सिद्धान्त आधुनिक जीवविज्ञान (Geology) की वैज्ञानिक धारणाओं और मान्यताओं से मिलता-जुलता है। जीववैज्ञानिक इस प्रयास में हैं कि यदि 'जीन' को बदला जा सके तो पूरे वंश का कायाकल्प हो सकता है, मनचाहा व्यक्तित्व निर्माण भी सम्भव है। वस्तुतः संक्रमण के सिद्धान्त से 'जीन' मानववृत्तियों को तथा आदतों को बदला जा सकता है।
जैन कर्मविज्ञानसम्मत संक्रमण के दो रूप हैं - ( १ ) मार्गान्तरीकरण या रूपान्तरण और (२) उदात्तीकरण। रूपान्तरण या मार्गान्तरीकरण रूप संक्रमण भी दो प्रकार का है-(१) अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति में, तथा (२) शुभ प्रकृति का अशुभ प्रकृति में रूपान्तरित हो जाना।
संक्रमण सिद्धान्त के कतिपय नियम
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धवला, कषायपाहुड,, पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ आदि में संक्रमण के कुछ नियम बताए हैं। कर्म की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अठावन हैं। कर्म प्रकृति के मूल भेदों में परस्पर रूपान्तरण या मार्गान्तरण रूप संक्रमण नहीं होता । अर्थात्-ज्ञानावरणीय कर्म दर्शनावरणीय आदि. शेष सात कर्मों में संक्रमित या रूपान्तरित नहीं होता, इसी प्रकार दर्शनावरणीय आदि अपने सिवाय शेष सात कर्मों में भी संक्रमित नहीं होता । संक्रमण या रूपान्तरण किसी एक ही कर्म की सजातीय अन्य उत्तर प्रकृतियों में होता है। जैसे वेदनीय कर्म दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। इनका परस्पर संक्रमण हो सकता है। सातावेदनीय असातावेदनीयरूप हो सकता है, इसी प्रकार असातावेदनीय सातावेदनीय रूप हो सकता है।
इस नियम में कुछ अपवाद भी हैं। दर्शन - मोहनीय और चारित्र - मोहनीय, ये मोहनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं, इनमें परस्पर संक्रमण नहीं हो सकता। इसी प्रकार आयुकर्म की नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये ४ उत्तर प्रकृतियाँ हैं, इनमें श्री परस्पर संक्रमण नहीं हो सकता। नरकायु का बन्ध हो जाने पर उस जीव को नरक में अवश्य ही जाना पड़ता है, वह अन्य गतियों में नहीं जा सकता।
जिस प्रकार कर्मविज्ञान में संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में माना है, इसी प्रकार मनोविज्ञान में भी रूपान्तरण केवल सजातीय वृत्ति-प्रवृत्तियों में ही माना गया है। विजातीय प्रकृतियों या प्रवृत्तियों में दोनों ही विज्ञान संक्रमण या रूपान्तरकरण नहीं
मानते।
१. कर्मवाद पृ. ३८
२. (क) कर्मसिद्धान्त विशेषांक पृ. ८२
(ख) धवला १६ / ३४१/१, कसायपाहुड ३/३/२२
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