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जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड ११९
इस परम साध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को उत्तरोत्तर क्रमशः अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को विकासक्रम, अथवा जैनकर्मशास्त्रीय भाषा में गुणस्थानक्रम कहते हैं। जैनकर्म-विज्ञान के द्वारा प्रत्येक मुमुक्षु या जिज्ञासु व्यक्ति आत्मा के अन्तिम साध्य को स्पष्टतः समझ सकता है कि यही विकास की पराकाष्ठा है,परमात्मभाव के साथ तादात्म्य है, साक्षात्कार है, जीव से शिव होना है, अथवा वेदान्त दर्शनसम्मत ब्रह्मभाव है। और यह भी स्पष्ट जान जाता है कि इस साध्य तक पहुँचने के लिए आत्मा को किन-किन बाधक तत्त्वों, विरोधी-संस्कारों अथवा कर्मों के कारणभूत कषायों या मोहकर्म आदि के साथ जूझना, उन्हें दबाना, रोकना और उन्हें परास्त करना पड़ता है ? जीवस्थानों में गुणस्थान का, मार्गणास्थानों में दोनों का निरूपण
जैनकर्मविज्ञान इतना ही बोध कराकर नहीं रह जाता, बल्कि वह विभिन्न जीवस्थानों में गुणस्थानों का निरूपण भी करता है, तथा कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा
और सत्ता का भी प्रतिपादन करता है। तथा चौदह मार्गणास्थानों में जीवस्थान और गुणस्थान का भी निरूपण करता है। तथा चौदह गुणस्थानों में भी जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, कर्मविषयक बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्प-बहुत्व इन दस विषयों का वर्णन करता है। मार्गणा और गुणस्थान में अन्तर ___ मार्गणास्थान में किया जाने वाला विचार कर्म की अवस्थाओं के तारतम्य का सूचक नहीं है, किन्तु मार्गणाओं द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक भिन्नताओं से घिरे हुए सांसारिक जीवों का विचार किया जाता है; जबकि गुणस्थानों द्वारा जीव से सम्बद्ध कर्मपटलों के, खासकर मोहनीय कर्म के तरतमभावों और मन-वचन-काय व्यापाररूप योगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का बोध प्राप्त किया जाता है।
मार्गणाएँ जीवों के विकास क्रम की बोधक नहीं हैं, किन्तु वे उनके स्वाभाविकवैभाविक रूपों का विविधरूप से पृथक्करण करती हैं। इसके विपरीत, गुणस्थान जीवों के विकास क्रम को बताते हैं, तथा विकास की क्रमिक अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण करते हैं।
मार्गणाएं सांसारिक जीव की सहभाविनी हैं, जबकि गुणस्थान क्रमभावी हैं। यही कारण है कि प्रत्येक जीव में किसी न किसी प्रकार से एक साथ चौदह मार्गणाएँ पाई १. कर्मग्रन्थ द्वितीय (पं. सुखलालजी) प्रस्तावना पृ. ७ २. चतुर्थ कर्मग्रन्थ (पं. सुखलालजी) प्रस्तावना पृ. ७ से।
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