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जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड ११७
कर्मों से सर्वथा मुक्त चतुर्दश गुणस्थानवर्ती ज्ञानादि अनन्त चतुष्टययुक्त उच्चतम अवस्था-मुक्तदशा तक का निरूपण करते हैं।
कर्मविज्ञान इस गणस्थानक्रम द्वारा यह बताता है कि गाढ़ कर्मबद्ध जीव निम्नतम मिथ्यात्वदशा से शनैःशनैः मोहकर्म के आवरणों को दूर करता हुआ तथा रत्नत्रय साधना से कर्मों का सर्वथा क्षय करता हुआ, आत्मा के निजी गुणों-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति का किस प्रकार विकास करके चौदहवें गुणस्थान तक पहुँच जाता है।'
जैनकर्मवैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्रकार के जीव के अथ से इति तक, अर्थात् जन्म से मुत्युपर्यन्त ही नहीं, संसार दशा (कर्मबद्धता) से लेकर मोक्षदशा (सर्वथा कर्ममुक्ति) प्राप्त मैने तक की विविध अवस्थाओं का निरूपण कर्मविज्ञान द्वारा किया है। प्रत्येक जीव की विशेषता बताने के लिए पाँच विषयों का निरूपण
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने कर्मविज्ञान में बहुत ही सूक्ष्मता से निम्नोक्त १ विषयों का मुख्यतया निरूपण किया है-(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, (३) गुणस्थान, (४) औदयिक आदि पाँच भाव एवं (५) संख्या। बीवस्थान का १४ भेदों में वर्गीकरण
सर्वप्रथम जीवस्थान में सांसारिक अवस्था की अपेक्षा से कर्मबद्ध जीवों के १४ घेद(स्थान) बताए गए हैं-(१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) बादर एकेन्द्रिय, (३) द्वीन्द्रिय, (४) बौद्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय, (६) असंज्ञि-पंचेन्द्रिय, और (७) संज्ञिपंचेन्द्रिय; इन सातों के धांत और अपर्याप्तरूप से दो-दो प्रकार हैं। इस प्रकार जीवों को संक्षेप में कुल १४ भेदों वर्गीकृत किया गया है।
इनमें जीवत्वरूप सामान्य धर्म की अपेक्षा से समानता होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं। इनकी कर्मजन्य अवस्थाएँ भी अनन्त हैं। छमस्थ के लिए प्रत्येक जीव की व्यक्तिशः अवस्था का ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है, इसलिए विशेषपर्शी शास्त्रकारों एवं कर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने सूक्ष्म एकेन्द्रियत्व आदि जाति की अपेक्षा से सो १४ वर्ग किये हैं। जिनमें सभी प्रकार के संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। बीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान एवं भाव में कौन हेय, कौन उपादेय?
वस्तुतः जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान तथा पंचभाव, ये सांसारिक
१. गुणस्थानों के स्वरूप का विशेष वर्णन उत्तरार्द्ध के बन्ध प्रकरण में देखें। १. कर्मग्रन्य भाग ४ (पं. सुखलालजी) प्रस्तावना पृ. ७ 1. इह सुहम-बायरेगिदि - बि - ति - चउ - असंनि - संनि - पंचिंदी।
अपज्जत्ता - पज्जत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा।। -कर्मग्रन्थ भाग ४, गा. २
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