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कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता ९५
कर्म सार्वभौम नियम का एक घटक है। कर्म के द्वारा अतीत को पढ़ा जा सकता है और भविष्य को देखा जा सकता है।
भावकर्म और द्रव्यकर्म : अतीत और अनागत के प्रतीक
तात्त्विक दृष्टि से विचार करें तो यह बात स्पष्टतया समझ में आ जाएगी। जैन कर्मविज्ञान अपने पारिभाषिक शब्दों में जिन्हें भावकर्म और द्रव्यकर्म कहता है, वे क्या हैं? प्राणी का भाव जैसा होता है, उसी प्रकार का कर्म-परमाणु अर्जित हो जाता है। इन्हीं को दूसरे शब्दों में चैतसिक कर्म और पारमाणविक कर्म कहा जा सकता है। अतः प्राणी के जैसे-जैसे भावकर्म (पूर्वकृत) होते हैं, वैसे ही कर्म- परमाणुओं का संग्रहण और संश्लेषण होता है।
अतीत के भावों को देखकर वर्तमान में पुरुषार्थ प्रेरणा और भविष्य का सुधार
इसका फलितार्थ यह हुआ कि प्राणी के अतीत ( पूर्वकृत) भावों को देखकर यह जाना जा सकता है कि इसके द्वारा किस प्रकार का कर्म होने वाला है। इसी प्रकार उसके कर्मों को देखकर यह भी ज्ञात हो सकता है कि किस प्रकार के भाव मन में चल रहे हैं। कर्मविज्ञान की इस विशेषता के आधार पर अतीत को पढ़ा जाता है और भविष्य को देखा जाता है; तथैव अतीत के कर्मों से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुधारा जाता है। कर्मसिद्धान्त अतीत को जानने और भविष्य को देखने का महत्वपूर्ण उपाय है।
मुनि हरिकेशबल चाण्डाल कुल में जन्मे और उन्होंने अपने आप को जब से गहराई से समझा, तब से वे अपने क्लिष्ट संस्कारों को बदलने के लिए प्रेरित हो गए। उन्हें अत्यन्त उपकारी साधु से बोध मिला कि तुम्हें यह जो मनुष्य जन्म मिला है, वह यों ही वृथा खोने के लिए नहीं है। भूतकाल में तुमने उत्कट जातिमद किया, उसी के फलस्वरूप तुम्हें चाण्डालकुल में जन्म मिला, जहाँ कोई सुसंस्कार या धर्मध्यान की बातें कहने-सुनने को प्रायः नहीं मिलतीं । परन्तु अतीत के अशुभकर्मवश प्राप्त इस जीवन से तुम प्रेरणा लो और अब इसे यों ही न खोकर तप-संयम में लगाओ, “जिससे तुम भविष्य मैं या तो सर्वकर्मों से मुक्त हो सको या फिर अल्पतम कर्म वाले महर्द्धिक उच्च देव बन सको,” जिनके कषाय मन्दतर, लेश्या भी शुभ, परिग्रह एवं अभिमान भी अल्पतम होते
हरिकेशबल मुनि ने अतीत को जाना वर्तमान के द्वारा, और वर्तमान में उन दुष्कर्मों को न दुहराकर तप के द्वारा पूर्वकृत उन कर्मों का क्षय कर डाला और संवर के
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