________________
११२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
और देव सभी प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों तक की आत्माओं से सम्बन्ध विविध कर्मों की व्यापक मीमांसा की है। इतना ही नहीं, जैन कर्मविज्ञान ने यह भी बताया है कि किन-किन कारणों से कौन-कौन से कर्मों का बन्ध होता है, तथा कौन-कौन से कर्मों के उदय से मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक एवं देव; नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव इन चारों गतियों और इनकी विविध योनियों में से किस-किस गति और योनि में जन्म ले सकते हैं।
इससे भी आगे बढ़कर जैनकर्म-विज्ञान ने मनुष्यजाति के ही नहीं समस्त प्राणिमात्र तक के भावों-परिणामों की चित्र-विचित्र धारा के अनुसार बंधनेवाले कर्मों की प्रकृति (स्वभाव), उसके परिमाण (स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु रूप में मात्रा), तथा उसके तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर एवं मन्दतम भावों से विविध रूप में बंधने तथा उदय में आने वाले कर्मों का भी तथा उन-उन कर्मों की कालसीमा (स्थिति) का भी अत्यन्त सूक्ष्मरूप से विचार किया है।' जैनकर्मविज्ञान ने संसार की सभी आत्माओं को परमात्मसदृश माना है
___ जैनकर्मविज्ञान की महत्ता इसी से उजागर हो जाती है कि दूसरे दर्शनों, धर्मो और मत-पंथों ने संसार की सभी आत्माओं को परमात्मा के समान नहीं माना; उनका, विशेषतः ईश्वरकर्तृत्ववादी दर्शनों का यह मन्तव्य रहा कि परमात्मा (ईश्वर) तो एक ही हो सकता है, वही सभी जीवों का नियन्ता, तथा कर्मफलदाता एवं कर्मप्रेरक है, सभी जीव ईश्वर बन जाएँगे तो उनमें परस्पर विचार-भेद-मतभेद होंगे और जगत की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। इस पर हमने इसी ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड 'कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन' में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष को प्रस्तुत करके समस्त शंकाओं का सयुक्तिक समाधान कर दिया है। यहाँ तो जैनकर्मविज्ञान की महत्ता के सन्दर्भ में इसका उल्लेख किया गया है। जैनकर्मविज्ञान में आत्मा के शुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वरूपों का विशद वर्णन ... वस्तुतः जैनकर्मविज्ञान में संसार के समस्त आत्माओं के शुद्धस्वरूप की स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए निश्चयनय की दृष्टि से ऐसा कथन किया है, कि आत्मा का शुद्ध, निष्कलंक, कर्ममुक्त, निर्विकार स्वरूप परमात्मा के ही समान है। किन्तु साथ ही कर्मविज्ञान को यह बताना भी आवश्यक था कि कर्मबद्ध जीवों की आत्मा में
१. (क) प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशास्तद्विधयः।
-तत्त्वार्थसूत्र ८/२ (ख) जोगा पडिय-पएस, ठिइ-अणुभागं कसायओ कुणइ। -पंचम कर्मग्रन्थ गा. ९६
(ग) विस्तृत विवरण के देखें 'कर्मविज्ञान' का बन्धप्रकरण। २. देखें-कर्मविज्ञान प्रथम भाग के द्वितीय खण्ड में 'कर्मवाद पर प्रहार और परिकार' निबन्ध
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org