________________
७२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
धर्म प्रेरक धर्मगुरुओं, तीर्थंकरों, श्रमण-श्रमणियों तथा आचार्य आदि धर्म धुरन्धरों क पदार्पण होता था।'
महाव्रती अनगारों को ही नहीं, लोकहितपरायण सांसारिक गृहस्थ विरताविरत श्रावकों को भी सूत्रकृतांग सूत्र में एकान्त उत्तम आर्य स्थान (हेय कार्यों से दूर रहने वाले उत्तम प्रशंसनीय स्थान) कहे गए हैं।३। ___ सभी तीर्थंकर जन्म से ही विशिष्ट अवधिज्ञानी होते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णन है कि धर्म-कर्म से अनभिज्ञ अबोध यौगलिक जनता (प्रजा) के हित के लिए स्वयं गृहस्थावस्था में विशिष्ट अवधिज्ञानी आदि-तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि आदि आर्यकर्मों, विविध विद्याओं, कलाओं, शिल्पों आदि का उपदेश (प्रशिक्षण) दिया था।
क्या उनके द्वारा किये गए लोकहितकारी कार्यों (कर्मों) की प्रशंसनीयता में कोई सन्देह रह जाता है ? कदापि नहीं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में तो स्पष्ट कहा गया है-"समस्त जगत् के जीवों की रक्षारूप दया के लिए भगवान् ने प्रवचनों का सुकथन किया!"
इसके अतिरिक्त जैन शास्त्रों में यत्र-तत्र यह वाक्य भी आता है कि भगवान् ने अमुक व्यक्ति को 'धम्मोकहिओ'-अर्थात्-उसको या उसके लिए धर्म (अबन्धक शुद्ध कर्म) का प्रतिपादन किया। यह भी लोकहित की दृष्टि से प्रशंसनीय माना जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान् महावीर. ने लौकिक तथा लोकोत्तर हित की दृष्टि से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, संघ-धर्म तथा श्रुत-चारित्ररूप धर्म आदि दशविध धर्मों का निरूपण किया है।
___ कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से ये लौकिक तथा लोकोत्तर धर्म क्रमशः पुण्य, संवर और निर्जरा के कारण होने से लोकहितकारक एवं प्रशंसनीय कार्य माने जाते हैं।
१. धन्नणं ते गामागर- नगर..... रायहाणी.... २. आरात् हेयधर्मेभ्य इति आर्यः। ३. तत्थणं जा सा सव्वतो विरताविरती, एस ठाणे आरंभाणारंभठाणं, एस ठाणे आहिए जाव सब्द दुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्म साहू।
-सूत्रकृतांग श्रु.२ अ.२ सू.७१६ ४. (क) "पयाहियाए उवदिसई"।
__ -जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रथम वक्षस्कार (ख) 'शसास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः।'
-बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र ५. "सव्वजगजीव-रक्खण-दयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।" -प्रश्नव्याकरण सूत्र ६. "दसविहे धम्मे पण्णत्तेतं.. गामधम्मे, नगरधम्मे रट्ठधम्मे... सुत्तचारित धम्मे।"
- स्थानांग, स्थान १०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org