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I कारण (सामान्य निर्देश)
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४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम
२. कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं
श्लो. वा. २/१/७/१३/५६३/२ यदनन्तर हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम्। -जिससे अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है। स. सा./आ./८४ बहिव्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापार कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहारः। बाह्यमे व्याप्यव्यापक भावसे घड़ेकी उत्पत्तिमे अनुकूल ऐसे व्यापारको करता हुआ तथा घडेके द्वारा किये गये पानाके उपयोगसे उत्पन्न तृप्तिको भाव्यभावक भावके द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़ेका कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ व्यवहार है। पं. का./ता. वृ./१६०/२३०/१३ निजशुद्वात्मतत्त्वसम्यगश्रद्धानज्ञानानुष्ठान
रूपेण परिणममानस्यापि सुवर्ण पाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरङ्गसाधको भवतीति सूत्रार्थः। = अपने ही उपादान कारणसे स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्गको अपेक्षा शुद्ध भावोसे परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारणकी अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे-सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणोंसे प्रत्येक आँचमें शुद्ध चोखी अवस्थाको धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तुका प्रयत्न है । तैसे हो व्यवहार मोक्षमार्ग है।
५. अनेक कारणों में से प्रधानका ही ग्रहण करना न्याय है स. सि./१/२१/१२५ भवं प्रतीत्य क्षयोपशमः संजायत इति कृत्वा भवः प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। = (भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परन्तु ) भवका अवलम्बन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षासे नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)।
स.सि./१/२०/१२० यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति 'कारणसदृशं हि लोके कार्य दृष्टम्' इति। नैतदैकान्तिकम् । दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । =प्रश्न-यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोकमें कारणके समान ही कार्य देखा जाता है। उत्तर-यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारणके समान कार्य होता है। यद्यपि घटकी उत्पत्ति दण्डादिसे होती है तो भी दण्डाद्यात्मक नहीं होता। (और
भी दे० कारण/I/३/१) रा. वा/१/२०/५/७१/११ नायमेकान्तोऽस्ति-'कारणसदृशमेव कार्यम्' इति कुतः । तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत । यथा घटः कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृश. स्यान्न सदृशः इत्यादि । मृद्रव्याजोवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृशः, पिण्डघटसंस्थानादिपर्यादेशात् स्यान्न सदृश । "यस्यैकान्तेन कारणानुरूप कार्यम्, तस्य घटपिण्डशिवकादिपर्याया उपालभ्यन्ते । किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिण्डे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिण्डस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम' स्यात एकान्तसदृशवात। न चैवं भवति। अतो नै कान्तेन कारणसदृशत्वम्। -यह कोई एकान्त नही है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुदगल द्रव्यकी दृष्टिसे मिट्टी रूप कारणके समान घड़ा होता है,पर पिण्ड और घर आदि पर्यायोंकी अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं यदि कारणके सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्थासे भी पिण्ड शिवक आदि पर्याय मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृपिण्डमें जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़ेमें भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टीकी भाँति घटका भी घट रूपसे ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परन्तु ऐसा तो कभी होता नहीं है अतः कार्य एकान्तसे कारण सदृश नहीं होता। ध.१२/४.२,७.१७७/८१/३ संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अगतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एवम्हादो अण्णत्थ सम्बत्य कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति । ण, जोगगुणगाराणुमारिपदेसगुणगारस्स अगंतगुणत्त विरोहादो।...ण च कज्ज कारणाणुमारी चे। इति णियमो अस्थि, अंतरंगकारणावे खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो । प्रश्न-यत' संयमासंयम रूप परिणामकी अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनन्तगुणा है अतः वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनन्तगुणी होनी चाहिए। क्यं कि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारणके अनुरूप ही कार्यकी उपलब्धि होती है। उत्तर--नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जराका गुणकार योगगुणकारका अनुसरण करनेवाला है, अतएव उसके अनन्त गुणे होने में विरोध आता है। दूसरे--कार्य कारणका अनुसरण करता ही हो. ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारणकी अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्यके बहिरंग कारणके अनुसरण करनेका नियम नहीं बन सकता। ५ १५/१६/१० ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिडादो मट्टिपपिडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिपसंगादो। सुबण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेब उप्पत्तिदंसणादो कारणाणसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुत्रपणजलुप्पत्तिदंसणादो। कि च-कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सबप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण [ ] कारणाणुसारि चेत्र कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदवादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेपणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ती पावेज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एरथ परि
४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम
१. कारण सदृश ही कार्य होता है ध. १/१, १, ४१/२७०/५ कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेधुं पार्यते सकलने यायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । = कारणके अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नही किया जा सकता है, क्योकि, यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है। ध.१०/४,२,४,१७५/४३२/२ सम्वत्थकारणाणुसारिकज्जुबलभादो। सब
जगह कारणके अनुसार ही कार्य पाया जाता है। न.च.व./३६८ की चूलिका-इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्य भवति ।
इस न्यायके अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष दे० 'समयसार') स.सा./आ./६८ कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा
यवा एवेति। - कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझ कर जी पूर्वक होनेवाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते है। (स.सा./
आ./१३०-१३०) (प.ध./पू./४०६) प्र.सा./ता../८/१०/११ उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति। - उपादान
कारण सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता.व./२३/४६/१४) स.म./२०/३०४/१८ उपादानानुरूपत्वाइ उपादेयस्य । - उपादेयरूप कार्य
उपादान कारण के अनुरूप होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-८
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