Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 554
________________ नय ५४६ IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक न, च. वृ./१६६ गेहद दबसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायबो सिद्धिकामेण ।१६६। -जो औदयिकादि अशुद्धभावोंसे तथा शुद्ध क्षायिकभावके उपचारसे रहित केबल द्रव्यके त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभावको ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए । (न. च. वृ./११६) न. च./श्रुत/पृ./३ संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबन्धमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनयः। -परमभाव ग्राहकनयकी अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायोका आधार होकर भी कोंके बन्ध व मोक्षका कारण नही होता है। स. सा./ता. वृ./३२०/४०८/५ सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादि. कारणपरिणामचन्यो जीव इति सूचितः। -सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदिके कारणरूप परिणामोंसे शून्य है। द्र. सै/टी./५७/२३६ यस्तु शुद्धशक्तिरूप. शुद्धपारिणामिकपरमभाव लक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यतीत्येवं न । -जो शुद्धदव्यकी शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीवमें पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है। और भी दे० (नय/V/१/५ शुद्धनिश्चय नय बन्ध मोक्षसे अतीत शुद्ध जीवको विषय करता है)। ३. पर्यायाथिक नय सामान्य निर्देश १. पर्यायार्थिक नयका लक्षण १. पर्याय ही है प्रयोजन जिसका स. सि./१/६/२१/१ पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसो पर्यायार्थिकः।पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। (रा. वा./९/३३/१/8/E); (ध. १/१,१.१/८४/१); (ध./४,१,४५॥ १७०/३); (क. पा.१/१३-१४/७१८१/२१७/१); (आ. प./8); (नि.सा./ ता. वृ./१६); (प.ध./पू./५१६)। २. द्रव्यको गौण करके पर्यायका ग्रहण न. च. वृ./११० पज्जय भउणं किज्जा दव्यं पि य जो हु गिहणए लोए। स्रो दबस्थिय भणियो विवरीओ पज्जयत्थिओ। -पर्यायको गौण करके जो द्रव्यको ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे बिपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात द्रव्यको गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायाथिकनय है। स. सा./आ./१३ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिकः। =द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुमें पर्यायको ही मुख्यरूपसे जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है। न्या. दी./३/८२/१२६ द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायाथिकनयमवलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्तते, कटकादिपर्यायाद कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । -जब पर्यायार्थिक नयकी विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनयको गौण करके प्रवृत्त होनेवाले पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे 'कुण्डल लाओ' यह कहनेपर लानेवाला कड़ा आदिके लानेमें प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्यायसे कुण्डलपर्याय भिन्न है। २. पर्यायार्थिक नय तस्तुके विशेष अंशको एकरव रूपसे विषय करता है स.सि./२/३३/१४१/१ पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विपयः पर्यायार्थिकः । -पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायाथिकनय है (त. सा./ १/४०)। श्लो, वा. ४/१/३३/३/२१५/१० पर्यायविषयः पर्यायार्थ । पर्यायको विषय करनेवाला पर्यायार्थ नय है। (न. च../१८३) ह. पु./५८/४२ स्युः पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषयाः नयाः ।।२। -ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नयके भेद है। वे सम वस्तुके विशेष अंशको विषय करते हैं। प्र. सा./त. प्र./११४ द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यमनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकाद विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वाव गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवद। -जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तम जीवद्रव्यमें रहनेवाले नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषोंको देखनेवाले और सामान्यको न देखनेवाले जीवोंको (वह जीवद्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उन-उन विशेषोंसे अनन्य है-कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति। का, अ./मू /२७० जो साहेदि बिसेसे बहुबिहसामण्णसंजुदे सव्वे । साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ ओ होदि । -जो अनेक प्रकारके सामान्य सहित सब विशेषोंको साधक लिंगके बलसे साधता है, वह पर्यायार्थिकनय है। ३. बन्यकी अपेक्षा विषयकी एकरपता १. पर्यायसे पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है रा.बा./२/३३/१/३/३ पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाथ क्षेपणादिलक्षगो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यापार्थिकः । रूपादि गुण तथा उरक्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। पे पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है । (ध. १२/४,२,८,१५/२६२/१२)। श्लो. वा./२/२/२/४/१२/६ अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य । -शब्दका बाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनयके द्वारा और सामान्य द्रब्यसे रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसुत्रनयसे कल्पित कर लिया जाता है। क. पा.१/१३-१४/१२७८/३१४/४ म च सामण्णमस्थि: विसेसेमु अणुगम अतुट्टसरूवसामण्णाणुवलम्भादो। -इस (ऋजुसूत्र) नयकी दृष्टिमें सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषोंमें अनुगत और जिसकी सन्तान ___ नहीं टूटी है. ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता । (ध.१३/२०१७/१६/६) क. पा.१/१३-१५/१२७६/३१६/६ तस्स विसए दव्वाभावादो। -शब्दनयके विषयमें द्रव्य नहीं पाया जाता। (क. पा. १/१३-१४/१२८५४ ३२०/४) प्र. सा./त.प्र./परि./नय नं.२ तत तु...पर्यायनयेन तन्तुमात्रबद्धदर्शनज्ञानादिमात्रम् । -इस आत्माको यदि पर्यायार्थिक नयसे देखें तो तन्तुमात्रकी भाँति ज्ञान दर्शन मात्र है । अर्थात जैसे तन्तुओं से भिन्न वस्त्र नामको कोई वस्तु नहीं हैं. वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है। २. गुण गुणीमें सामानाधिकरण्य नहीं है रा. वा./२/३३/७/६७/२० न सामानाधिकरण्यम्-एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वाव पर्याया एव विविक्तदाक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। -(ऋजुसूत्र नममें गुण व मुणीमें) सामानाधिकरण्य नहीं मन सकला क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहाँ अपना अस्तित्व रखती जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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