Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 611
________________ निक्षेप २. उपयोगरहितकी भी आगम संज्ञा कैसे है। = घ. ४/१.३.१/२/२ कथमेवरस जीवदवियस्स दाशावरशीयनल ओवसमविट्टिस्स एयभावले सागमप दिरित्तस्स आगमपलेत्तरएसो न एसोसो, आधारे आयोववारेण कारने जुनारेणागमववरसखओवसम विसिट्ठजी वदन्वावलंबणेण वा तस्स तदविरोहा प्रश्न श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम से विशिष्ट तथा द्रव्य और भावरूप क्षेत्रागम से रहित इस जीवद्रव्यके आगम क्षेत्र रूप संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है (यहाँ 'क्षेत्र' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, आधाररूप आत्मामें आधेयभूतक्षयोपशम-स्वरूप आगमके उपचारसे; अथवा कारणरूप आत्मा में कार्यरूप क्षयोपशमके उपचारसे, बथवा प्राप्त हुई है आगमसंज्ञा जिसको ऐसे क्षयोपशमसे युक्त जोवइम्पर्क अनलम्बनसे जीवके आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञाके होनेमें कोई विरोध नहीं है। घ. ७/२,९,१/४/२ कथमागमेण विप्यमुक्कस्स जीवदव्त्रस्स आगमववएसो ए एस दोस्रो आगमाभावे मि आगमसं सकारसहियस्स पृथ् लद्धागमववएसस्स जीवदव्वस्स आगमववएसुवलंभा । एदेण भट्टसंसकारजीवदव्वस्स वि गहणं कायव्वं, तत्थ वि आगमन व एसुवलंभा । प्रश्न- जो आगमके उपयोगले रहित है, उस जीवद्रव्यको 'आगम' कैसे कहा जा सकता है ! उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, आगम के अभाव होनेपर भी आगमके संस्कार सहित एवं पूर्व काल में आगम संज्ञाको प्राप्त जीवद्रव्यको आगम कहना पाया जाता है। इसी प्रकार जिस जीवका आगमसंस्कार भ्रष्ट हो गया है उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए क्योंकि उसके भी (भूतपूर्व प्रज्ञापननयकी अपेक्षाक. पा.) आगमसंज्ञा पायी जाती है। (नं. पा. ९/९.१३-१४६२१७ १६६ / २ ) । ३. नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका १. नोआगममें द्रव्य निक्षेपपनेकी सिद्धि = श्लो. बा. २/१/५/६६/२०४/१ एतेन जीवादिनो आगमद्रव्य सिद्धिरुक्ता । य एवाई मनुष्यजीव भागास स एवाना य पुनर्मनुष्यो भविष्या मीत्ययस्यस्य सर्वभाष्यमाध्यमानस्य सद्भावात् । ननु जीवादिनोजयममा जादा सार्वकालिकत्वेनानागतत्वासिद्धस्तदभिमुख्यस्य कस्यचिदभावादिति चेत सत्यमेतत् । तत एव जीवादिविशेषापेक्षाही जीवारिद्रय निक्षेपो इस कथनसे, जीव, सम्यग्दर्शन आदिके मोम की सिद्धि भी कह दी गयी है। क्योंकि 'जो ही मैं पहले मनुष्य जीव था, सो ही मैं इस समय देव होकर व रहा हूँ तथा भविष्यामे फिर नै मनुष्य हो जाऊँगा, ऐसा सर्वतः अबाधित अन्वयज्ञान विद्यमान है। प्रश्न- जीव पुदगल आदि सामान्य द्रव्योंका नोआगमद्रव्य तो असम्भव है; क्योंकि, जीवपना पुद्गलपना आदि धर्म तो उन द्रव्योंमें सर्वकाल रहते है । अत' भविष्यत्में उन धर्मोंकी प्राप्ति असिद्ध होनेके कारण उनके प्रति अभिमुख होनेवाले पदार्थोंका अभाव है उपर आपकी बात सत्य है, सामान्यरूपसे जीव पुद्गल आदिका नोआगम द्रव्यपना नहीं बनता । परन्तु जोवादि विशेषकी अपेक्षा बन जाता है, इसीलिए मनुष्य देव आदि रूप जीव विशेषोके ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं । । और भी दे० निक्षेप/६/१ तथा निक्षेप/६/१/२) । २. भावी नोआगम इन्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि स.सि./१/५/१०/ सामान्यापेक्षया नोश्रागमभाविजीयो नास्ति जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति । गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्ति प्रत्यभिमुखो मनुष्य भाविजीव' । जीवसामान्यकी अपेक्षा 'नोआगमभावी जीव' यह भेद नहीं बनताः क्योंकि, जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। यहाँ पर्याया Jain Education International ६०३ ६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ fire ant अपेक्षा 'नोआगमभावी जीव' यह भेद बन जाता है; क्योंकि जो जीव दूसरी गतिमें विद्यमान है, वह जब मनुष्य भयको प्राप्त करने के लिए सन्मुख होता है तब वह मनुष्यभावी जीव कहलाता है। (यहाँ 'जीव' विषयक प्रकरण है। (और भी दे० निक्षेप/६/१६/ ३/१) (क. पा १ / १,१३-१४ / २१७ /२७०/६ ) । घ. ४ / १.१.१ / ६ / ६ भवियं खेत पाहुजाभावो जीवो हिस्स जोक्स चागम ओसमर हिदन्तादो। अनागमस्स खेतययएसो । न क्षेत्रपश्यस्मिन् भावक्षेत्रागम इति जीवद्रव्यस्य पुरे क्षेत्रत्वसिद्ध ेः । - नोआगमद्रव्यके तीन भेदोंमेंसे जो आगामी कालमें क्षेत्रविषयक शास्त्रको जानेगा ऐसे जीवको भावी नोआगम-द्रव्य कहते हैं । ( क्षेत्र विषयक प्रकरण है)। प्रश्न-जो जीव क्षेत्रागमरूप क्षयोपशमसे रहित होनेके कारण अनागम है, उस जीवके क्षेत्र संज्ञा कैसे बन सकती है। उधर नहीं; क्योंकि, 'भाव से रूप आगम जिसमें निवास करेगा इस प्रकारको निरुतिके मनसे जीवद्रव्य के क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम होनेके पूर्व ही क्षेत्रपा सिद्ध है। २. कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगममें द्रव्यनिक्षेपपना • ध. ४/१,३,१ / ६ / १ तत्थ कम्मदव्यवखेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं । कधं कम्मस्स खेत्तववएसो न, क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन् जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्व सिद्ध । ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म कर्म (यतिरिक्त नोआगम ) द्रव्यक्षेत्र कहते हैं। प्रश्न - कर्मद्रव्यको क्षेत्र संज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? उत्तर- - नहीं; क्योंकि, जिसमें जो 'सिमन्ति' अर्थात निवास करते है, इस प्रकारकी निरुक्तिके बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है । ४. नोकपतिरिति नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना घ. १/४.१.६०/२२२/३ जा सा सम्यदिरित्तदव्यगंधकदी सा गंधिमबाइम-वेदिन परिमादिभेषण अमेयविहा कधम्मेदेसि गंधसण्णा एदे जीव बुद्धीए अप्पाणम्मि गंथदित्ति तेसिं गंधत्तसिद्धी । =जो तद्वतिरिक्त द्रव्यग्रन्थकृति है वह गथना, बुनना, वेष्टित करना और पूरना आदिके भेदसे अनेक प्रकार की है। प्रश्न-- इनकी ग्रन्थ संज्ञा कैसे सम्भव है ? उत्तर -नहीं; क्योंकि, जीव इन्हें बुद्धिसे आत्मामें ता है। अतः उनके ग्रन्थपना सिद्ध है । - ४. ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ २. त्रिकाल घायकशरीरोंमें द्रव्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि श्लो. वा. २/१/५/६६/२७४ /२७ नन्वेवमागमद्रव्यं वा बाधितात्तदन्वयप्रत्ययान्मुख्य सिद्धचतु ज्ञायकशरीरं तु त्रिकालमोचरं तपतिरि कर्म कर्म विकल्पमनेकविध कथं तथा सिद्धय ेदप्रतीयभावादिति चेन्न, तत्रापि तथाविधान्वयप्रत्ययस्य धान्वयप्रत्ययस्य सद्भावात् । यदेव मे शरीर ज्ञातुमारभमाणस्य तत्त्वं तदेवेदानी परिसमाय ज्ञानस्य वर्तत इति वर्तमानज्ञायकशरीरे तावदन्वयप्रत्ययः । यदेवोपज्ञानस्य मे शरीरमासी देवानानुपयुक्तीस ज्ञायकशरीरे प्रत्यवमर्श' । यदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य शरीरं तदेबोपयुक्त ज्ञानस्य भविष्यतीत्यनागराज्ञायकवारीरप्रत्ययः । प्रश्नअन्वयज्ञानसे मुख्य बागमस्य यो भने ही निर्वाधरूप सिद्ध हो जाओ परन्तु त्रिकालवर्ती ज्ञायक शरीर और कर्म नोकर्मके भेदो से अनेक प्रकारका तद्वयतिरिक्त भला कैसे मुख्य सिद्ध हो सकता है; क्योंकि उसकी प्रतीति नहीं होती है उत्तर नहीं; वहाँ भी तिस प्रकार अनेक भेदोंको लिये हुए अन्वयज्ञान विद्यमान है । वह इस प्रकार कि तत्त्वों को जाननेके लिए आरम्भ करनेवाले मेरा जो ही शरीर पहले था, वही तो इस समय तत्त्वज्ञानकी भली भाँति समाप्त कर लेनेवाले मेरा यह शरीर व रहा है, इस प्रकार वर्तमान के ज्ञायवशरीर में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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