Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 639
________________ नो कषाय न्याय मन्वीक्षा तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् । -प्रमाणसे बस्तुकी परीक्षा करनेका नाम न्याय है। प्रत्यक्ष और आगमके आश्रित अनुमानको अन्वीक्षा कहते है, इसीका नाम आन्वीक्षिकी या न्यायविद्या व न्यायशास्त्र है। २. न्यायामासका लक्षण नो कषाय-१. नोकषाय-दे० कषाय/१। २. नोकषाय वेदनी -दे० मोहनीय/१। नो कृति-दे० कृति। नो क्षेत्र-दे० क्षेत्र/१। नोजीव-दे० जीव/१। नो त्वचा-दे० त्वचा। नो संसार-दे० संसार। नौकार श्रावकाचार-आ० योगेन्दुदेव (ई० श० ६) द्वारा रचित प्राकृत दोहाबद्ध एक ग्रन्थ । न्या. द./भाष्य/१/१/१/पृ.३/२० यत्पुनरनुमानप्रत्यक्षागमविरुद्ध' न्यायाभासः स इति । -जो अनुमान प्रत्यक्ष और आगमके विरुद्ध हो उसे न्यायाभास कहते है। ३. जैन न्याय निर्देश न्यग्रोध-परिमंडल-दे० सस्थान । न्याय-तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थोकी सिद्धि व निर्णयके अर्थ न्यायशास्त्रका उद्गम हुआ। यद्यपि न्यायशास्त्रका मूल आधार नैयायिक दर्शन है, जिसने कि वैशेषिक मान्य तत्त्वोंकी युक्ति पूर्वक सिद्धि की है, परन्तु वीतरागताके उपासक जैन व बौद्ध दर्शनोंको भी अपने सिद्धान्तकी रक्षाके लिए न्यायशास्त्रका आश्रय लेना पड़ा। जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्र (वि० श०२-३), अकलंक भट्ट (ई०६४०-६८०) और विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) को विशेषतः वैशेषिक, सारख्य, मीमांसक व बौद्ध मतोंसे टक्कर लेनी पड़ी। तभीसे जैनन्याय शास्त्रका विकास हुआ। बौद्धन्याय शास्त्र भी लगभग उसी समय प्रगट हुआ। तीनों ही न्यायशास्त्रोंके तत्त्वोंमें अपनेअपने सिद्धान्तानुसार मतभेद पाया जाता है। जैसे कि न्याय दर्शन जहाँ वितंडा, जाति व निग्रहस्थान जैसे अनुचित हथकण्डोंका प्रयोग करके भी वादमें जीत लेना न्याय मानता है, वहाँ जैन दर्शन केवल सद्हेतुओंके आधारपर अपने पक्षकी सिद्धि कर देना मात्र ही सच्ची विजय समझता है। अथवा न्याय दर्शन विस्तार रुचिवाला होनेके कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व आगम इस प्रकार चार प्रमाण, १६ तत्त्व, उनके अनेकों भेद-प्रभेदोंका जाल फैला देता है, जब कि जैनदर्शन संक्षेप रुचिवाला होनेके कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष दो प्रमाण तथा इनके अंगभूत नय इन दो तत्त्वोंसे ही अपना सारा प्रयोजन सिद्ध कर लेता है। त. सू./९/६, ६-१२,३३ प्रमाणनयैरधिगमः ।६। मतिश्रुतावधिमन.पर्यय केवलानि ज्ञानम ।। तत्प्रमाणे ।१०। आद्य परोक्षम् ।११। प्रत्यक्षमन्यत् ।१२नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढ वभूता नयाः ।३३। = प्रमाण और नयसे पदार्थोंका निश्चय होता है ।६। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवल ये पॉच ज्ञान हैं। वह ज्ञान ही प्रमाण है वह प्रमाण, प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ।६०) इनमें पहले दो मति व श्रुत परोक्ष प्रमाण है। ( पाँचों इन्द्रियो व छटे मनके द्वारा होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान है और अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति व आगम ये सब श्रुतज्ञानके अवयव है ) ॥११॥ शेष तीन अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं (इनमें भी अवधि व मनःपर्यय देश प्रत्यक्ष और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। उपचारसे इन्द्रिय ज्ञान अर्थात मतिज्ञानको भी साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया जाता है) ।१२। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एव भूत ये सात नय हैं। (इनमें भी नैगम, संग्रह व व्यवहार द्रव्यार्थिक अर्थात सामान्यांशग्राही हैं और शेष ४ पर्यायार्थिक अर्थात् विशेषांशग्राही है) ३३ (विशेष देखो प्रमाण, नय, निक्षेप, अनुमान, प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि विषय) प. मु./१/१ प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। - प्रमाणसे पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होता है प्रमाणाभाससे नहीं होता। १. न्याय दर्शन निर्देश १. न्यायका लक्षण न्या. दी./१/१/३/४ 'प्रमाणनयैरधिगमः' इति महाशास्त्रतत्त्वार्थ सूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थ निःश्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपनयनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासंभवात् । ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकार संपत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते ।६६-१॥ -- 'प्रमाणनयैरधिगमः' यह उपरोक्त महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रका वाक्य है। सो परमपुरुषार्थरूप, मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयके विषयभूत, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले उपायोंका प्रमाण और नय रूपसे निरूपण करता है, क्योंकि प्रमाण और नयके द्वारा ही जीवादि पदार्थोंका विश्लेषण पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है । प्रमाण और नयको छोड़कर जीवादि तत्त्वोंके जानने में अन्य कोई उपाय नही है। इसलिए सरलतासे प्रमाण और नयरूप न्यायके स्वरूपका बोध करानेवाले जो सिद्धिविनिश्चय आदि बड़े-बड़े शास्त्र हैं, उनमे प्रवेश पानेके लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है। ध.१३/५,१.१०/२८६/६ न्यायादनपेतं न्याय्यं श्रुतज्ञानम् । अथवा, ज्ञेयानुसारित्वान्न्यायरूपत्वाद्वा न्यायः सिद्धान्तः । =न्यायसे युक्त है इसलिए श्रुतज्ञान न्याय कहलाता है। अथवा शेयका अनुसरण करनेवाला होनेसे या न्यायरूप होनेसे सिद्धान्तको न्याय कहते हैं। न्या. वि./वृ./१/३/२८/१ नीयतेऽनेनेति हि नीतिक्रियाकरणं न्याय उच्यते । -जिसके द्वारा निश्चय किया जाये ऐसी नीति क्रियाका करना न्याय कहा जाता है। न्या. द /भाष्य/१/१/१/पृ. ३/१८ प्रमाणैरर्थ परीक्षणं न्यायः। प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सान्वीक्षा प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षण दे० नय/I/३/७ (प्रमाण, नय व निक्षेपसे यदि बस्तुको न जाना जाये तो युक्त भी अयुक्त और अयुक्त भी युक्त दिखाई देता है।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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