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परिशिष्ट
चूड़ामणि- १. विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर । (दे. विद्याघर २. इन्दनन्दिश्रुतावतार के अनुसार तुम्बुलाचार्यने 'वायपाहुड़' तथा 'बटखण्डागम' के आद्य ५ खण्डोंपर कन्नड भाषा में ४००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक एक टोका लिखी थी। ई. १६०४ के भट्टालक कृत कर्णाटक शब्दानुशासनमें इमे 'तत्त्वार्थ महा शास्त्र' की १६००० श्लोक प्रमाण व्याख्या कही गई है । प. जुगल किशोर जी मुख्तार तथा डा हीरा लाल जो शास्त्री के अनुसार 'तस्वार्थ महा शास्त्र' का अभिप्रेत यहां उमाम्वामी कृत तत्त्वार्थ सूत्र न होकर सिद्धान्त शास्त्र है (जे./१/२०५-२७६) ।
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चूर्णी - अल्प शब्दों में महान अर्थका धारावाही विवेचन करनेवाले चौर्ण अथवा चूर्णी कहलाते हैं। (दे. अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पद') इसको रचनाका प्रचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायो में पाया जाता है । दिगम्बर आम्नायमें यतिवृषभाचार्य कषाय पाहुड़ पर चूर्णि सूत्रोकी रचना की है। इसी प्रकार श्वेताम्बराम्नायमें भी 'कर्म प्रकृति' 'शतक' तथा 'सप्ततिका' नामक प्राचीन ग्रन्थोंपर चूर्णये उपलब्ध हैं। यथा
१ कर्मप्रकृति नि शिवशमं सूरि (कृ' प्रकृति पर किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस प्राकृत भाषा बद्ध चूर्ण में यद्यपि यत्र तत्र 'कषायपाहुड़ चूर्णि' (वि. श २-३ ) के साथ साम्य पाया जाता है तदपि शैल। १३०६ । तथा भाषाका भेद होनेसे दोनों भिन्न है । ३०६ कर्म प्रकृति चूर्णि में जो गद्यांश पाया जाता है वह 'नन्द सूत्र' (वि. ५१६ ) से लिया गया प्रतीत होता है और दूसरी और चन्द्र महत्तर (दि. ०५०-१०००) कृत पत्र संग्रह द्वितीय भाग इस चूर्णिका पर्याप्त उपयोग किया गया है । इसलिये पं. कैलाशचन्द जी इसका रचना काल वि. ५५० से ७५० के मध्य स्थापित करते हैं । ३११ (जै./१/ पृष्ठ ) ।
२. कषायपाहुड चूर्णि - आ. गुणधर (वि. पू.श. १) द्वारा कथित
पाके सिद्धान्त सूत्रोंपर यति वृषभाचार्य वि. श. २-३ में चूर्णि सूत्रोंकी रचना की थी, जिनको आधार मानकर पचाइ आचार्यों ने इस ग्रन्थपर विस्तृत वृत्तियें लिखीं, यह बात सर्वप्रसिद्ध है (दे. इससे पहले कषाय पाहु यद्यपि इन सूत्रोंका प्रतिपाद्य भी ही है जो कि कषायपाहुड़ का तथापि कुछ ऐसे विषयों की भी यहां विवेचना कर दी गई है जिनका कि संकेत मात्र देकर गुणधर स्वामी ने छोड़ दिया था । २१० सिद्धान्त सूत्रोंके आधार पर रचित होते हुए भी, आ. वीरसेन स्वामीने इन्हें सिद्धान्त सूत्रोंके समकक्ष माना है और इनका समक्ष रखकर पट्खण्डागम के मूलसूत्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया है । १७४ | जिस प्रकार कषाय पाहुडके मूल सूत्रोंका रहस्य जानने के लिये यतिवृषभ को आर्यमक्षु तथा नागहस्ति के पादमूलमें रहना पड़ा उसी प्रकार इनके चूर्णि सूत्रोंका रहस्य समझने के लिये श्री वीरसेन स्वामीको उच्चारणाचार्यों तथा चिरन्ताचायों की शरण में जाना पड़ा । १७८१ (जै./१/ पृष्ठ ) ।
३. लघु शतक चूर्णि - श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि (वि.श. ५) कृत 'शतक' पर प्राकृत गाथा बद्ध यह ग्रन्थ ॥ ३५७ | चन्द्रर्षि महत्तरकी कृति माना गया है |३३८ ये चन्द्र पंचसंग्रहकार ह है या कोई अन्य इसका कुछ निश्चय नहीं है (दे, आगे परिशिष्ट / २ | परन्तु क्योंकि तत्वार्थ भाष्य की सिद्धसेन गणी (वि. श. १) कृत टीका के साथ इसकी बहुतसी गाथाओं या वाक्योंका साम्य पाया जाता है, इस लिए उसके साथ इसका आदान प्रदान निश्चित है । ६६२-३६३ ० संग्रह में सम्मिलित दिगम्बरीय पंच समह (वि.
श. ८ से पूर्व ) की अति प्रसिद्ध 'ज' सामण्णं' गहण...' गाथा इसमें उद्धृत पाई जाती है । ३६२। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यक भाष्य (वि. ६५०) की भी अनेकों गाथायें इसमें उद्धृत हुई मिलती हैं । ३६०१
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१ आगम विचार
अभपदेव देव सूरि (वि. १०८८-१९३५) के अनुसार उनका वितरि भाष्य इसके आधारपर रचा गया है। इन सब प्रमाणों पर से यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना वि. ७५०-१००० में किसी समय हुई है । ३६६ |
४. बृहद् शतक चूर्णि - आ. हेमचन्द्र कृत शतक वृत्तिमें प्राप्त 'चूलिका बहुवचनान्त निर्देश' पर से ऐसा लगता है कि शतकपर अनेकों चूर्णयें लिखी गई हैं. परन्तु उनमें दो प्रसिद्ध है तथा बृहद् । कहीं-कहीं दामों के मतों में परस्पर भेद पाया जाने से इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता ॥ ३६७॥ लघु चूर्णि प्रकाशित हो चुकी हैं | ३१५० शतक चूर्णिके नामसे जिसका उल्लेख प्रायः किया जाता है वह यह (लघु) चूर्णि ही है । बृहद् चूर्णि यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, तदपि आ. मलयगिरि (विश. १२ कृत पच संग्रह टोका तथा कर्म प्रकृति टीका में उक्त'च तक ऐस उल्लेख द्वारा वि. श. १२ में इस की विद्यमानता सिद्ध होती है । परन्तु लघु शतक चूर्णि में क्योंकि इसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिये यह अनुमान किया जा सकता है कि इसकी रचना उसके अर्थात् वि ७५०-१००० के पश्चात कभी हुई है। ५ सप्ततिका चूर्णि सित्तरि या सप्ततिका' नामक श्वेताम्बर ग्रन्थपर प्राकृत भाषा में लिखित इस चूर्ण में परिमित शब्दों द्वारा 'सित्तरि' की ही मूल गाथाओंका अभिप्राय स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है। इसमें 'कर्म प्रकृति', 'शतक' तथा 'सत्कर्म' के साथ 'कषाय पाहुड़' का भी निर्देश किया गया उपलब्ध होता है | १६८ इसके अनेक स्थलो पर 'शतक' के नाम से 'शतक चूर्ण' (ि ७५०१०००) का भी नामोल्लेख किया गया प्रतीत होता है । ३७०| आ. अभयदेव सुर (वि. १०-१९२५) का अनुसरण करते हुए सप्ततिका पर भाष्य लिखा है । ३७० | और इसीका अर्थावबोध कराने लिये आ० मलयगिरि (वि. श. १२) ने सप्ततिका पर टीका लिखी है । ३६ । इसलिये इसका रचना काल वि.श. १०-११ माना जा सकता है | ३७०) (जै./१/ पृष्ठ)
तस्वार्थसूत्र - सामान्य परिचय अध्यायोंमें विभक्त छोटे छोटे ३५७ सूत्रों वाले इस ग्रन्थने जैनागमके सकल मूल तथ्यों का अत्यन्त संक्षिप्त परन्तु विशद विवेचन करके गागर में सागरकी उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन सम्प्रदाय में इस ग्रन्थका स्थान आगम ग्रन्थों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। साम्प्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। नाम्नायमें यह संस्कृत का आद्य ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रन्थ मागधी अथवा शौरसेनो प्राकृत में लिखे गए हैं योग करणानुयोग इन तीनों अनुयोगका सकल सार इसमें गर्म है तो २/१२४-१५६) जे०/२/२२७) सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक तथा श्लोक वार्तिक इस ग्रन्थकी सर्वाधिक मान्य टीकायें हैं। इसके अनुसार इस ग्रन्थका प्राचीन नाम तत्त्वार्थ सूत्र न होकर 'तत्त्वार्थ' अथवा 'तत्रार्थ शास्त्र' है। सूत्रात्मक होने के कारण बाद यह वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया । मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने के कारण 'मोक्ष शास्त्र' भी कहा जाता है। (तो०/२/ १२३) (जै०/२/२४६, २४७) जेनाम्नाय में यह आय संस्कृत ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सकल शास्त्र प्राकृत भाषा में लिखे गये है। (०/२/२४९) ।
२. दिगम्बर प्रन्थ-यद्यपि यह ग्रन्थ दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों को मान्य है परन्तु दोनों आम्नायों में इसके जा पाठ प्राप्त होते हैं उनमें बहुत कुछ भेद पाया जाता है (सी०/२/१६२) (१०/२/२१ दि वराम्नाय वाले पाठ के अध्ययन से पता चलता है कि सूत्रकार ने अपने गुरु कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार आदि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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