Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 637
________________ निषेकहार गो.क./मू./१६०/१६६ आवाहूणियम्मदिदी भिसेो पुसतकम्माणं । आउस णिसेगो पुण सगट्ठदी होदि नियमेण | ११६ = आयु वर्जित सात कर्मोंकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे उन-उनका आबाधा काल घटाकर जो शेष रहता है, उतने कालके जितने समय होते है; उतने ही उस उस कर्म के निषेक जानना । और आयु कर्मकी स्थिति प्रमाण कालके समय जितने उसके निषेक है। क्योंकि आयुकी आबाचा पूर्व भनकी आने व्यतीत हो चुकी है। (गो.क.यू./११६ ११०२) । गो. जी. / भाषा / ६७११७३ / १४ एक एक समय ( उदय आने ) सम्बन्धी जेता द्रव्यका प्रमाण ताका नाम निषेक जानना । (विशेष दे० उदय / ३ में कमकी निषेक रचना) | २. अन्य सम्बन्धित विषय १. उदय प्रकरण में कर्म प्रदेशोंकी निषेक रचना २. स्थितिप्रकरण में कर्मप्रदेशोंकी निषेक रचना २. मिरेको अनुभागरूप-स्पर्धक रचना में ४. निक्षेप व अतिस्थापनारूप निषेक निबेकहार // १२ / ११११- दोगुणहाणिपमा से हारो दु होइ । = गुणहानिके प्रमाणका दुगुना करनेसे दो गुणहानि होती है, उसीको निषेकहार कहते हैं (विशेष दे० गणित / II/५) निषेध - पं. ध./पू. /२७५-२७६ सामान्यविधिरूपं प्रतिषेधात्मा । भवति विशेषश्च । उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति | २७५॥ तत्र निरंशो विधिरिति स यथा स्वयं सदिति । तदिह विभज्य विभागः प्रतिपेधरकपनं तस्य २०६। विधिरूप वर्तना सामान्य काल ( स्व काल ) है और निषेधस्वरूप विशेषकाल कहलाता है। तथा इनमें से किसी एककी मुख्य विवक्षा होनेसे अस्ति नास्ति रूप विकल्प होते हैं । २७५। उनमे अंश कल्पनाका न होना ही विधि है; क्योंकि स्वयं सब सत् रूप है । और उसमे अंश कल्पना द्वारा विभाग करना प्रतिषेध है । (विशेष दे० सप्तभंगी / ४) । * प्रतिषेध के भेद - पर्युदास व प्रसज्य - दे० अभाव | निषेध साधक हेतु - दे० हेतु । निषेधिक० समाचार | निष्काम भाव - दे० नि'कांक्षित | निष्कुट दे० क्षेत्र निष्क्रांत क्रिया - दे० क्रिया । निष्क्रियत्व शक्ति - दे० उदय / ३ | - दे० स्थिति / ३ | - ३० स्पर्धक । -- दे० अपकर्षण / २ । स. सा./डा/परि/शक्ति नं. २३ सलफर्मो परमप्रदेश निष्क्रियशक्तिः । समस्त कर्मो के अभाव से प्रवृत्त आत्मप्रदेशोंकी निस्पन्दता स्वरूप निष्क्रियत्व शक्ति है । FU निष्ठापक — दे० प्रस्थापक । निष्पत्ति - Ratio (ज. प. प्र. १०७ ) । निष्पिण्छ- दिगम्बर साधुओंका एक संघ (दे० इतिहास/५/१६) निसर्ग स.सि./१/३/१२/३ निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । स.सि./ ६ / ६ / ३२६ / ६ निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तन निसर्गा अर्थ स्वभाव है अथवा निसर्गका अर्थ प्रवर्तन है । (रा. व/१/३/-/ २२/१६ तथा ६/६/२/५१६/२) । निसर्ग क्रिया -दे० क्रिया / ३ । Jain Education International नृपदत्त निसगंज- - १. निसर्गज सम्यग्दर्शन -- दे० अधिगमज । २. ज्ञानदर्शन चारित्रादिमे निसर्गज व अधिगमजपना व उनका परस्परमे सम्बन्ध - दे० अधिगमज | निसर्गाधिकरण -- दे० अधिकरण | निसही — दे० असही । । निस्तरण. आ./नि/२/१४/२९ भवान्तरप्रापण दर्शनादीना निस्तरण - अन्य भवने सम्यग्दर्शनादिकोको पहुँचाना अर्थात् आमरण निर्दोष पालन करना, जिससे कि वे अन्य जन्म में भी अपने साथ आ सकें। अनघ /९/१६/ १०४ निस्तीर्णस्तु स्थिरमपि तदप्रापणं कृच्छ पाते। परीषह तथा उपसर्गोंके उपस्थित रहनेपर भी उनसे चलायमान न होकर इनके अंत तक पहुँचा देनेको अर्थात् क्षोभ रहित होकर मरपास पहुँचा देने को निस्तरण कहते है। निस्तारक मन्त्र - - दे० मन्त्र / १/६ | निस्तीर्ण ६२९ -दे० निस्तरण । । नोच- नीच गोत्र व नीच कुल आदि दे० वर्ण व्यवस्था । नीचैर्वृति-स.सि./६/२८/२४०/९ गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनति नचैवृत्ति। जो गुणोंमे उत्कृष्ट है उनके प्रति विनयसे नम्र रहना नीचे है। नीतिवाक्यामृत-आ. सोमदेव ( ०१४२१६०) द्वारा रचित यह संस्कृत श्लोकम राजनीति विषयक प्रन्थ है। (ती./२/७३)। नीतिसार- आा. इन्द्रनन्दि (ई.स. १०) की नीति विषयक रचना । नील । -रा. वा./३/११/७-८/१८३ / २१ - नीलेन वर्णेन योगात् पर्वतो नील इति व्यपदिश्यते संज्ञा चास्य वासुदेवस्य कृष्णव्यपदेशमद कम पुनरसी विदेहरम्यकविनिवेशविभागी ॥८॥ नीलवर्ण होने के कारण इस पर्वतको नील कहते है वासुदेवकी कृष्ण संज्ञाकी तरह यह संज्ञा है । यह विदेह और रम्यक क्षेत्रकी सीमापर स्थित है । विशेष दे० लोक / ३/४ | नोल. नीस पर्वउपर स्थित एक मूट तथा उसका राजदेव दे० लोक ५ / ४:२. एक ग्रह-दे० ग्रह; ३. भद्रशाल वनमे स्थित एक दिग्गजेन्द्र पर्वत - दे० लोक ५/३:४. रुचक पर्वत के श्रीवृक्ष कूटपर रहनेवाला एक दिग्गजेन्द्र देव - दे० लोक५/१३,५. उत्तरकुरुमें स्थित १० द्रहों में से एक - दे० लोक५/६६६० नील नामक एक लेश्या - दे० लेश्या; ७.पं.पू./अधि/ श्लो. नं. -सुग्रीव के चाचा किरके राजा राजका पुत्र था (१/१३) अन्तमें दीक्षित हो मोक्ष पधारे (१९६/१६) । नीलाभास - एक ग्रह - दे० ग्रह । नृत्य माल्य-विजयार्थ पट खपात कामदेव दे० लोक /५/४ । नृपतुंग -- अपरनाम अमोघवर्ष था— दे० अमोघवर्ष । नृपदत्त - ( ह. पु./ अधि. / श्लोक नं. ) - पूर्व भव नं. ३ में भानु सेठका पुत्र भानुकीति था। (२४/१७-१८) दूसरे में चित्र विद्या धरका पुत्र गरुडकान्त था। ( ३४ / १३२-१३३) । पूर्व के भवमें राजा गङ्गदेवका पुत्र ग था । ( ३४ / १४२-१४३) । वर्तमान भवमें वसुदेवका पुत्र हुआ। ( ३५ / ३) । जन्मते ही एक देवने उठाकर इसे सुदृष्टि सेठके यहाँ पहुँचा दिया। (३५/४-५) । वही पोषण हुआ। दीक्षा धारण कर घोर तप किया। ( ५६ / ११५-१२० ); ( ६० /७) । अन्तमें मोक्ष सिधारे (११/१६-१७) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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