________________
न्याय
२. वस्तु विचार व जय-पराजय व्यवस्था
र व जय-पराजय व्यवस्था
वक्ताके वचनको घुमाकर अन्य अर्थ करना वाक्छल है। सम्भावित अर्थको सभी में सामान्यरूपसे लागू कर देना सामान्य छल है। उपचारसे कही गयी बातका सत्यार्थ रूप अर्थ करना उपचारछल है।
७. नैयायिकमतके प्रवर्तक व साहित्य नैयायिक लोग यौग व शेष नामसे भी पुकारे जाते है । इस दर्शनके मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल ग्रन्थ न्यायसूत्रकी रचना की। इनका समय जैकोबीके अनुसार ई० २००-४५०, यूईके अनुसार ई० १५०-२५० और प्रो० ध्र वके अनुसार ई० पू० की शताब्दी दो बताया जाता है । न्यायसूत्र पर ई. श. ४ में वात्सायनने भाष्य रचा । इस भाष्यपर उद्योतकरने न्यायवार्तिककी रचना की। तथा उसपर भी ई० ८४०में वाचस्पति मिश्रने तात्पर्य टीका रची। उन्होंने ही न्यायसूचिनिबन्ध व न्यायसूत्रोद्धारकी रचना की। जयन्तभट्ट ने ई० ८८० मे न्यायमञ्जरी, न्यायकलिका; उदयनने ई.श, १० में बाचस्पतिकृत तात्पर्यटीकापर तात्पर्यटीका-परिशुद्धि तथा उदयनकी रचनाओंपर गंगेश नैयायिकके पुत्र बर्द्धमान आदिने टीकाएँ रचीं। इसके अतिरिक्त भी अनेक टीकाएँ व स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त हैं। जसे-भासर्वज्ञकृत न्यायसार, मुक्तावली, दिनकरी, रामरुद्री नामकी भाषा परिच्छेद युक्त टोकाएँ, तर्कसग्रह, तर्कभाषा, तार्किकरक्षा आदि। न्याय दर्शनमें नव्य न्यायका जन्म ई० १२००में गंगेशने तत्त्वचिन्तामणि नाम ग्रन्थकी रचना द्वारा किया, जिसपर जयदेवने प्रत्यक्षालोक, तथा वासुदेव सार्वभौम (ई० १५००) ने तत्त्वचिन्तामणि व्याख्या लिखी। वासुदेवके शिष्य रघुनाथने तत्त्वचिन्तामणिपर दीधिति, वैशेषिकमतका खण्डन करनेके लिए पदार्थखण्डन, तथा ईश्वरसिद्धिके लिए ईश्वरानुमान नामक ग्रन्थ लिखे। (स्या. म./परि-ग/पृ. ४०८-४१८) । * नैयायिक मतके साधु-दे० वैशेषिक । * नैयायिक व वैशेषिक दर्शन में समानता व असमानता
-दे० वैशेषिक।
१. वस्तुविचारमें परीक्षाका स्थान ति. प./१/८३ जुत्तीए अत्थपडिगहणं ।-(प्रमाण, नय और निक्षेपकी) ___ युक्तिसे अर्थका परिग्रहण करना चाहिए।
दे.नय/I/३/७ जो नय प्रमाण और निक्षेपसे अर्थ का निरीक्षण नहीं करता ___ है, उसको युक्त पदार्थ अयुक्त और अयुक्त पदार्थ युक्त प्रतीत होता है। क. पा. १/१-१/१२/७/३ जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयमाणस्स पमाणाणुसारितविरोहादो। जो शिष्य युक्तिकी अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी माननेमें विरोध आता है। न्या. दी /१/२/४ इह हि प्रमाणनयविवेचनमुद्दे शलक्षणनिर्देशपरीक्षा
द्वारेण क्रियते। अनुद्दिष्टस्य लक्षनिर्देशानुपपत्तेः । अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्ध। -इस ग्रन्थमें प्रमाण और नयका व्याख्यान उद्देश, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योकि विवेचनीय वस्तुका उद्दश नामोल्लेख किये बिना लक्षणकथन नहीं हो सकता और लक्षणकथन किये बिना परीक्षा नहीं हो सकती, तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन अर्थात निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक व्यवहार तथा शास्त्रमें
भी उक्त प्रकारसे ही वस्तुका निर्णय प्रसिद्ध है। भद्रबाहु चरित्र (हरिभद्र सूरि कृत) प्रस्तावना पृ.६ पर उद्धृतपक्षपातो न मे वीरेन दोषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । - न तो मुझे वीर भगवाहमें कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य मत-प्रवर्तकों में कोई द्वेष है। जिसका वचन युक्तिपूर्ण होता है उसका ग्रहण करना ही मेरे लिए प्रयोजनीय है। २. न्यायका प्रयोग लोकव्यवहारके अनुसार ही होना
चाहिए। ध. १२/४,२,८,१३/२८६/१० न्यायश्चर्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम, न
तदनहि तो न्यायः, तस्य न्यायाभासत्वात् । न्यायकी चर्चा लोकव्यवहारकी प्रसिद्धि के लिए हो की जाती है। लोकव्यवहारके बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल नयाभास ही है। ३. वस्तुकी सिद्धिसे ही जीत है, दोषोद्भावनसे नहीं न्या वि./मू./२/२१०/२३६ वादी पराजितो युक्तो वस्तुतत्त्वे व्यवस्थितः । तत्र दोषं ब्र वाणो वा विपर्यस्तः कथं जयेत् ।२१०। वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था हो जानेपर तो वादीका पराजित हो जाना युक्त भी है। परन्तु केवल बादीके कथनमें दोष निकालने मात्रसे प्रतिवादी कैसे जीत सकता है! सि. वि./मू. व.मू. बृ./५/११/३३७ भूतदोषं समुद्भाव्य जितवाद पुनरन्यथा। परिसमाप्तेस्तावतै वास्य कथं वादी निगृह्यते ।११॥ तन्न समापितम्-'विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्यं स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणं च' इति ।- प्रश्न-वादीके कथनमें सद्भुत दोषोंका उद्भावन करके ही प्रतिवादी जीत सकता है। बिना दोषोद्भावन किये ही बादकी परिसमाप्ति हो जानेपर वादीका निग्रह कैसे हो सकता है ! उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि, वादी व प्रतिवादी दोनों ही के दो कर्तव्य हैंस्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण । ( सि. वि./म. वृ./५/२/३११/१७)।
४. निग्रहस्थानोंका प्रयोग योग्य नहीं श्लो. वा. १/१/३३/न्या./श्लो. १०१/३४४ असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावन द्वयोः । न युक्तं निग्रहस्थानं संहान्यादिवत्ततः।१०११ -बौद्धोके
८. न्यायमें प्रयुक्त कुछ दोषों का नाम निर्देश
श्लो. वा. ४/१/३३/न्या./श्लो, ४५७-४५६ सांकर्यात प्रत्यवस्थानं यथानेकान्तसाधने । तथा वैयतिकर्येण विरोधेनानवस्थया ।४५४। भिन्नाधारतयोभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च । अप्रतीत्या तथाभावेनान्यथा वा यथेच्छया ।४५८। वस्तुतस्ताहशैर्दोषैः साधनाप्रतिघाततः । सिद्ध मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यहि लक्षणम् ।४५६। - जैनके अनेकान्त सिद्धान्तपर प्रतिवादी (नैयायिक ), संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण, उभय, संशय, अप्रतिपत्ति, व अभाव करके प्रसंग या दोष उठाते हैं अथवा और भी अपनी इच्छाके अनुसार चक्रक, अन्योन्याश्रय, आत्माश्रय, व्याघात, शाल्यत्व, अतिप्रसंग आदि करके प्रतिषेध रूप उपालम्भ देते हैं। परन्तु इन दोषों द्वारा अनेकान्त सिद्धान्तका व्याघात नहीं होता है। अतः जैन सिद्धान्त द्वारा स्वीकारा गया 'मिथ्या उत्तरपना' ही जातिका लक्षण सिद्ध हुआ। और भी-जातिके २४ भेद, निग्रहस्थानके २४ भेद, लक्षणाभासके तीन भेद, हेत्वाभासके अनेकों भेद-प्रभेद, सब न्यायके प्रकरण 'दोष' संज्ञा द्वारा कहे जाते हैं । विशेष दे० वह वह नाम । * वैदिक दर्शनोंका विकासक्रम-दे० दर्शन ( षट्दर्शन )।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org