Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 641
________________ न्याय ५ नैयायिक दर्शन निर्देश न्या. सु./ /९/९/१-२ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनान्त सिद्धान्तानयनतर्क निर्णयवादजपवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां सम ज्ञानान्निश्रेयसाधिगम |१| दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः |२| =१. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धान्त, ७. अवयव, ८. तर्क, ६. निर्णय, १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५, जाति, १६. निग्रहस्थान- इन १६ पदार्थोंके तत्त्व ज्ञानसे मोक्ष होता है ।। तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञानका नाश होता है. उससे दोषोंका अभाव होता है, दोष न रहने प्रवृत्तिको निवृत्ति होती है, फिर उससे जन्म दूर होता है, जन्मके अभाव से सब दुखो - का अभाव होता है। दुःखके अत्यन्त नाशका ही नाम मोक्ष है ॥२॥ षट् दर्शन समुच्चय / श्लो. १७-३३/पृ. १४-३१ का सार - मन व इन्द्रियो द्वारा वस्तु यथार्थ ज्ञानको प्रमाण कहते है । वह चार प्रकारका है. (दे० अगला शीर्षक ) | प्रमाण द्वारा जिन पदार्थोंका ज्ञान होता है वे प्रमेय हैं। वे १२ माने गये है ( दे० अगला शीर्षक ) । स्थाणुमे पुरुषका ज्ञान होनेकी भाँति संशय होता है (दे० संशय)। जिससे प्रेरित होकर लोग कार्य करते हैं वह प्रयोजन है। जिस बासमें पक्ष न विपक्ष एक मत हों उसे दृष्टान्त कहते है (दे० दृष्टान्त) | प्रमाण द्वारा किसी बातको स्वीकार कर लेना सिद्धान्त है। अनुमान की प्रक्रिया मे प्रयुक्त वाक्योंको अवयव कहते हैं। वे पाँच हैं (दे० अगला शीर्षक) । प्रमाणका सहायक तर्क होता है। पक्ष व विपक्ष दोनोका विचार जिस विषयपर स्थिर हो जाये उसे निर्णय कहते हैं । तत्त्व जिज्ञासासे किया गया विचार-विमर्ष बाद है। स्वपक्षका साधन और परपक्षका खण्डन करना जल्प है । अपना कोई भी पक्ष स्थापित न करके दूसरेके पक्षका खण्डन करना वितण्डा है । असत् हेतुको हेत्वाभास कहते है। यह पाँच प्रकारके है (दे० अगला शीर्षक) वक्ता अभिप्रायको उलटकर प्रगट करना छल है। वह तीन प्रकारका है (दे० शीर्षक नं० ७) । मिथ्या उत्तर देना जाति है। वह २४ प्रकार का है। वादी व प्रतिवादीके पक्षका स्पष्ट भाव न होना निग्रह स्थान है । वे भी २४ हैं (दे० वह यह नाम नैयायिको कार्यकारणको सर्वथा भिन्न मानते हैं, इसलिए ये असत कार्यवादी हैं । जो अन्यथासिद्ध न हो उसे कारण कहते है वह तीन प्रकारका है - समवायी, असमवायी व निमित्त । सम्बन्ध दो प्रकारका है-संयोग व समवाय । 1 ६. नैयायिक दर्शन मान्य पदार्थोंके भेद १- प्रमाण: - ( न्या. सू./१/१/३) (षड् दर्शन समुच्चय) लौकिक पांच ज्ञानेन्द्रिय (दे. आगे प्रमेय) इन्द्रिय सन्निकर्ष मन संयोग संयुक्त समवाय संयुक्त समवेत प्रत्यक्ष लौकिक अलौकिक व्याप्ति halblet Jain Education International - समवाय समवेतसमवाय भा० २-८० 67 प्रमाण अनुगान योगिज पूर्व शेष सामान्यतो वत् वत् दृष्ट (लक्षण दे· अनुमान) (तीनों के दो दो आवश्यक) सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति धूम देखने से उपगान (दै उपमान) ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (एक पदको सुनकर अगले को सुनने की इच्छा 'चन्दन देखने से ) गन्ध का ज्ञान ६३३ शब्द [ शब्द ने अर्थबोध की पा आकांक्षा योग्यता सन्निधि तात्पर्य धर्मता १. न्याय दर्शन निर्देश " २ प्रमेय - न्या. सू./मू./१/१/१-२२ का सारार्थ - प्रमेय १२ हैंआत्मा शरीर इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति दोष, प्रेमभान फल, दुःख और अपवर्ग । तहाँ ज्ञान, इच्छा, सुख, दुःख आदिका आधार आत्मा है । चेष्टा, इन्द्रिय, सुख दुखके अनुभवका आधार शरीर है । इन्द्रिय दो प्रकारकी हैं- बाह्य व अभ्यन्तर अभ्यन्तर इन्द्रिय मन है माह्य इन्द्रिय दो प्रकारकी है-कर्मेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय वाकू, हस्त पाद, जननेन्द्रिय और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। चक्षु, रसना, घाण, त्वक् व श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । रूप, रस आदि उन पाँच इन्द्रियोके पाँच विषय अथवा सुख-दुःख के कारण 'अर्थ' कहलाते हैं । उपलब्धि या ज्ञानका नाम बुद्धि है। अणु, प्रमाण. नित्य, जीवात्माओं को एक दूसरेसे पृथक करनेवाला, तथा एक कालमें एक ही इन्द्रियके साथ संयुक्त होकर उनके क्रमिक ज्ञानमें कारण बननेवाला मन हैं । मन, वचन, कायकी क्रियाको प्रवृत्ति कहते है । राग, द्वेष व मोह 'दोष' कहलाते हैं। मृत्युके पश्चात् अन्य शरीर मे rtant स्थितिका नाम प्रेत्यभाव है। सुख-दुःख हमारी प्रवृत्तिका फल है। अनुकूल फलको सुख और प्रतिकूल फलको दुःख कहते है । ध्यान-समाधि आदिके द्वारा आत्मसाक्षात्कार हो जानेपर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश मे पाँच लेन हो जाते है। आगे चलकर छह इन्द्रियों, इनके छह विषय, तथा छह प्रकारका इनका ज्ञान, सुख, दुःख और शरीर इन २१ दोषोसे आत्यन्तिकी निवृत्ति हो जाती है। वहीं अपवर्ग या मोक्ष है। शब्द वाक्य पद लौकिक वैदिक 'दोनो की चारचार आवश्यकताएँ है. ३-६ न्या.सू./मू./१/१/२३-३१/२८-३३ का सार - संदाय प्रयोजन व दृष्टान्त एक-एक प्रकार के हैं। सिद्धान्त चार प्रकारका है-सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध अर्थ सर्वत्र है. एक शास्त्रमे सिद्ध और दूसरेमे असिद्ध अर्थ प्रतितन्त्र है जिस अर्थकी सिद्धिले अन्य अर्थ भी स्वतः सिद्ध हो जाये वह अधिकरण सिद्धान्त है। किसी पदार्थको मानकर भी उसकी विशेष परीक्षा करना अभ्युपगम है । هاليه 1 ७. अवयव - न्या. सू./मू./१/१/३२-३६/३३-३६ का सार - अनुमानके अवयव पाँच प्रति हेतु उदाहरण उपनय और निग मन । साध्यका निर्देश करना प्रतिज्ञा है । साध्य धर्मका साधन हेतु कहलाता है। उसके तीन आवश्यक है- पक्षवृत्ति, सपक्षवृत्ति और विपक्ष व्यावृत्ति | साध्यके तुल्य धर्मवाले दृष्टान्तके वचनको उदाहरण कहते हैं । वह दो प्रकारका है अन्वय व व्यतिरेकी । साध्यके उपसंहारको उपनय और पाँच अनयमों युक्त वाक्यको इराना निगमम है। पदों का निर्वि उच्चारण बक्ताका { अभिप्राय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ८-१२. न्या. सू./१/१/४०-४२/३६-४१ तथा १/२/१-३/४०-४३का सार-तर्क निर्णय, वाद, जल्प, aaण्डा एक एक प्रकारके है । १३. हेत्वाभासन्या. सू./९/२/४-६/४४-४० का सारार्थ हेलाभास पाँच है- 'सव्यभिचारी, विरुद्ध. प्रकरण सम, साध्यसम और कालातीत । पक्ष व विपक्ष दोनोको स्पर्श करनेवाला सव्यभिचार है। वह तीन प्रकार है साधारण असाधारण व अनुपसंहारी स्वपक्षविरुद्ध साध्यको सिद्ध करनेवाला विरुद्ध है। पक्ष व विपक्ष दोनों हीके निर्णय से रहित प्रकरणसम है 1 केवल शब्द भेद द्वारा साध्यको ही हेतुरूपसे कहना साध्यसम है । देश कालके ध्वंससे युक्त कालातीत याविष्ठ है १४-१६. मा. स./१/२/ १०-२० / ४८-५४ का सारार्थ - छल तीन प्रकारका या - वाक् छल, सामान्यछल और उपचार छल । www.jainelibrary.org

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