Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 632
________________ निर्जरानुप्रेक्षा ६२४ निर्माण प्राप्त हुआ (कर्मका) अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में आयुकर्मके प्रदेशकी गुणश्रेणी निर्जराके अभावके समान स्थिति व अनुभागके घातका अभाव है। क. पा/१/४-२२/६५७२/३३७/११ ठ्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णस्थि त्ति। प्रदेशोंके गलनेसे, जैसे स्थितिघात होता है वैसे अनुभागका घात नहीं होता। (और भी दे० अनुभाग/२/१)। ३. अन्य सम्बन्धित विषय १. शनी व अज्ञानीकी कर्म क्षपणामें अन्तर-दे० मिथ्यादृष्टि/४ । २. अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें निर्जराका अल्पबहुत्व तथा तद्गत शंकाएँ। --दे. अल्पबहुत्व । ३. संयतासंयतकी अपेक्षा संयतकी निर्जरा अधिक क्यों ? -दे० अल्पबहुत्व १/३।। ४. पॉचों शरीरोंके स्कन्धोंकी निर्जराके जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा। -दे० ष. वं. १/४,१/सूत्र ६६-७१/३२६-३५४ । ५. पाँचौ शरीरोंकी जघन्योत्कृष्ट परिशातन कृति सम्बन्धी प्ररूपणाएँ। -दे० ध०६/४,१,७१/३२१-४३८ । ६. कर्मोंकी निर्जरा अवधि व मनःपर्यय शानियों के प्रत्यक्ष है। -दे० स्वाध्याय/१। निर्जरानुप्रेक्षा-दे० अनुप्रेक्षा । निणय-(रा.वा./१/१३/३/५८/8)-न हि यत एव सशयस्तत एव निर्णयः । -संशयका न होना ही निर्णय या निश्चय है। न्या. सू./२/१/४१ विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः ॥४॥ तकं आदि द्वारा पक्ष व प्रतिपक्षमें से किसी एककी निवृत्ति होनेपर, दूसरेकी स्थिति अवश्य ही होगी। जिसकी स्थिति होगी उसका निश्चय होगा। उसीको निर्णय कहते हैं। निदण्ड-नि, सा./ता. वृ./४३ मनोदण्डो वचनदण्ड' कायदण्डश्चेत्येतेषां योग्यद्रव्यभावकर्मणामभावान्निर्दण्डः। -- मनदण्ड अर्थात् मनोयोग, वचनदण्ड और कायदण्डके योग्य द्रव्यकर्मों तथा भावकों का अभाव होनेसे आत्मा निर्दण्ड है। निदुख-एक ग्रह-दे० ग्रह। निर्देश-१. निर्देशका लक्षण स, सि./१/७/२२/३ निर्देशः स्वरूपाभिधानम्। -किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है। रा. वा/१७/.../३८/२ निर्देशोऽर्थावधारणम् । =पदार्थ के स्वरूपका निश्चय करना निर्देश है। ध. १/१,१,८/१६०४१ निर्देश प्ररूपणं विवरणं व्याख्यानमिति यावत । ध.३/१,२,१/८/8 सोदाराणं जहा णिच्छयो होदि तहा देसो णिदेसो। कुतीर्थपाखण्डिनः अतिशय्य कथनं वा निर्देश.। -१. निर्देश, प्ररूपण, विवरण और व्याख्यान ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । २. जिस 'प्रकारके कथन करनेसे श्रोताओंको पदार्थ के विषयमें निश्चय होता है, उस प्रकारके कथन करनेको निर्देश कहते है। अथवा कुतीर्थ अर्थात सर्वथा एकान्तवादके प्रस्थापक पाखण्डियोंको उल्लंघन करके अतिशय रूप कथन करनेको निर्देश कहते हैं। २. निर्देशके भेद ध. १/१,१,८/१६०/२ स द्विविधो द्विप्रकार, ओधेन आदेशेन च । - वह निर्देश ओघ व आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका है। [ ओघ व आदेशके लक्षण (दे० वह वह नाम)] । निदोष-नि. सा./ता ७.४३ निश्चयेन निखिलदुरितमलकलङ्कपङ्कनिनिक्तसमर्थ सहजपरमवीतरागसुखसमुद्रमध्यनिर्मग्नस्फुटितसह - जावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वान्निर्दोषः । निश्चयसे समस्तपापमल कलंकरूपी कीचडको धो डालने में समर्थ, सहज-परमवीतरागसुख समुद्र में मग्न प्रगट सहजावस्थास्वरूप जो सहजज्ञानशरीर, उनके द्वारा पवित्र होनेके कारण आत्मा निर्दोष है। निर्दोष सप्तमी व्रत-दे० नंदसप्तमो व्रत । निद्वन्द-मो. पा./टी./१२/३१२/१० निर्द्वन्दो निष्कलहः केनापि सह कलहरहित। अथवा निर्द्वन्द्वो नियुग्मः स्त्रीभोगरहितः । 'द्वन्द्वं कलहयुग्मयो' इति वचनात् । क्योकि द्वन्द्र कलह व युग्म इन दो अथोंमें वर्तता है, इसलिए निर्द्वन्द्व शब्दके भी दो अर्थ होते हैं-निष्कलह अर्थात किसीके साथ भी कलहसे रहित; तथा निर्युग्म अर्थात भोगसे रहित। निनामिक-ह.प्र./३३/श्लोक नं.) राजा गंगदेवका पुत्र था। पूर्व, भवके वै रके कारण जन्मते ही माताने त्याग दिया। रेवती नामक धायने पाला ।१४४। एक दिन अपने भाइयोंके साथ भोजन करनेको बैठा तो माताने लात मारी ।१४७ मुनि दीक्षा ले घोर तप किया। अगले भवमें कृष्ण नामक नवॉ नारायण हुआ।-दे० कृष्ण । निर्मम-- नि. सा./ता. वृ./४३ प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्निर्ममः । __-प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त प्रकारके मोह राग व द्वेषका अभाव होने से आत्मा निर्मम है। मो. पा./टी./१२/३१२/१२ निर्ममो ममत्वरहित', ममेति अदन्तोऽव्यय. शब्दः। निर्गतं ममेति परिणामो यस्येति निर्ममः।-निर्मम अर्थात __ ममत्वरहित । 'मम' यह एक अदन्त अव्यय शब्द है। मम' जिसमेंसे निकल गया है ऐसा परिणाम जिसके बर्तता है, वह निर्मम है। निर्मल-भावी कालीन १६वें तीर्थकर-दे० तीर्थ कर/५। निर्माण-१. निर्माण नामकर्म सामान्य स, सि./८/११/३८६/१० यन्निमित्तारपरिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम। निर्मी यतेऽनेनेति निर्माणम् । -जिसके निमित्त से शरीरके अंगोपांगोंकी रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। निर्माण शब्दका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है-जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण है । (रा. वा./८/११/६/१७६/२१ ); (गो. क./जी. प्र./३३/३०/११)। ध. ६/१,६-१,२८/३ नियतं मानं निमानं । -नियत मानको निर्माण कहते हैं। २.निर्माण नामकमके भेद व उनके लक्षण स.सि./८/११/३८६/११ तद द्विविध-स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माण चेति । तज्जाति नामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थान प्रमाण व निर्वतयति । वह दो प्रकारका है-स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण । उस उस जाति नामकर्म के अनुसार चक्षु आदि अवयवों या अंगोपांगों के स्थान व प्रमाणकी रचना करनेवाला स्थान व प्रमाण नामकर्म है। (रा.वा./८/११/११५७६/२२ ): (ध. १३/५,६,१०१/३६६/६); (गो. क./जी, प्र./३३/३०/१६)। ध, ६/१,६-१,२८/६६/३ त दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि। जस्स कम्मस्स उदएण जोवाणं दो वि णिमिणाणि होति, तस्सकम्मरस णिमिणमिदि सण्णा। जदि पमाणणिमिणणामकम्मण होज्ज, तो जधा-बाहु-सिर--णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज्ज। ण चेव, अणुवलं भा। तदो कालमस्सिदूण जाई च जीवाणं पमाणणिवत्तयं कम्म पमाणणिमिणं णाम । जदि संठाणणिमिणकम्म णाम ण होज्ज, तो अंगोवंग-पच्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभा। तदो कण्ण-णयण-णासिया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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