Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 631
________________ निर्जरा की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध होनेके कारण निरबनुबन्धा है । ० निर्जरा/३/१९/४ विपाक निर्जरा ही नोलको कारण है विषाक निर्जरा नहीं। ६२३ * निश्चय धर्म व चारित्र आदिमें निर्जराका कारणपना -दे० वह वह नाम 1 * व्यवहार धर्म आदिमें कथंचित् निर्जराका कारणपना -दे० धर्म / ०/१ । * व्यवहार धर्ममें बन्धके साथ निर्जराका अंश -दे० सेवर। * व्यवहार समिति आादिसे केवळ पापकी निर्जरा होती है पुण्यकी नहीं - दे० संबर / २ | २. कमकी निर्जरा क्रमपूर्वक ही होती है । ५.१३/५०४.२४/२/५ अनि तिनसतकम् पदमा तो अकमेव शिवदवे । ण, दोत्तडणं व वज्भकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदं ताणममेण पदविरोहादो प्रश्न- यदि जिन भगवानके सत्कर्मका पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता ? उत्तरनहीं, क्योंकि, पृष्ट नदियोंके समान मंथे हुए कर्मस्कन्धों पतनको देखते हुए पतनको प्राप्त होनेवाले उनका अक्रमसे पतन माननेमें विरोध आता है । ३. निर्जरा उपकी प्रधानता | भ. आ. १.९०४६/९० तवसा विणा व मोक्लो संरमिलेग होइ कम्मस्समभोगादीई विणा हु खोयदि सुगुप्त ४ तपके बिना, केवल कर्म के सबरसे मोक्ष नहीं होता है। जिस धनका संरक्षण किया है वह धन यदि उपभोगमें नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा। इसलिए कर्म की निर्जरा होनेके लिए तप करना चाहिए। मू. आ./२४२ - जमजोगे जुतो जो तबसा चेट हवे अगेगविधं । सो कम्मणिज्जराए विलाए वट्टदे जोवो | २४२। इन्द्रियादि संयम व योगसे सहित भी जो मनुष्य अनेक मेदरून तपमें वर्तता है, वह जीव बहुतसे कर्मोकी निर्जरा करता है ! रा. वा./१/२३/०/१८४/१५ परत कायमोचितो की तपसा चेटवे अयहिं सो कम्मराए विपुलर बट्टदे मस्सो ि काय, मन और बचन गुप्तिमे युक्त होकर जो अनेक प्रकारके तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जराको करता है । नोट- निश्चय व्यवहारचारित्रादि द्वारा कर्मोकी निर्जराका निर्देश - (१० चारित्र /२/२: धर्म / ७६: धर्मध्यान /4/३) । ४. निर्जरा व संवरका सामानाधिकरण्य उ. सु./६/३ तपसा निर्जराश्च तपके द्वारा संवर व निर्जरा दोनों होते है। FRED वा. अ./६६ जेण हवे संवरणं तेग दु णिज्जरणमिदि जाणे ॥६६॥ जिन परिणामोंसे सबर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है। स. सि. / ६ / ३ / ४१०/६ तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनवस्थापनार्थ संपरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थं य - तपका धर्म में (१० धर्मोमें) अन्तर्भाव होता है, फिर भी संगर और निर्जरा इन दोनोंका कारण है, और संवरका प्रमुख कारण है, यह बतानेके लिए उसका अलग से कथन किया है। (रा. वा./६/३/१-२/५१२/२७ ) । प. प्र./मू./२/३८ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु । संबर पिज्जर जानि तु समय महीष्णु मुनिराज ज तक आत्मस्वरूपमें लीन हुआ ठहरता है, तबतक सकल विकल्प समूह Jain Education International ३. निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ से रहित उसको तू संवर व निर्जरा स्वरूप जान । ( और भी दे० चारित्र/२/२ धर्म / ०/ धर्मध्याना० ६/३ आदि) । ५. संबर सहित ही बधार्थ निर्जरा होती है उससे रहित नहीं |= .../१४ जो संवरेण ती अप्पसानो हि अप्पा गुणि ऊण झादि णिदं जाणं खो संधूणोदि कम्मरयं संवरसे युक्त ऐसा जो जीव, वास्तव आरमप्रसाधक वर्तता हुआ, आत्माका अनुभव करके ज्ञानको निश्चत रूपसे ध्याता है, वह कर्मको खिरा देता है। भ.आ./मू./१८५४/१६६४ तवसा चेव ण मोरखो संवरहीणस्स होइ जिनयणे ण हुसोले परिसते किसिणं परिस्सदि । ९८५८४० - जो मुनि संबर रहित है, केवल तपश्चरणसे ही उसके कर्मका नाश नहीं हो सकता है, ऐसा जिनवचनमें कहा है। यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब कम सूखेगा 1 ( यो. सा. / ६/६ ); विशेष- दे० निर्जरा/३/१ । * मोक्षमार्ग में संवरयुक्त अविपाक निर्जरा ही इट है, सविपाक नहीं दे० निर्जरा/३/१ । ★ सम्यग्दष्टिको ही यथार्थ निर्जरा होती है -२० निर्जरा/२/१:३/९ ३. निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ १. ज्ञानीको ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों २.सं./टी./३६/१९४१/१ अत्राह शिष्यः- सविपाकनिर्जरा नरकादिगतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संझानिनामेवेति नियमो नास्ति रात्रीत्तरम् - अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्वका निर्जरा से प्राह्मा या पुनरानिनां निर्जरा सा गजस्मानमनिकला। यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुत बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या । या तु सराग 1 टान निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्म विनाशं करोति तथापि संसारस्थिति स्तोकं कुरुते तने तीर्थकर प्रकृत्यादि विशिष्टन्ध कारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति वीतरागसइट पुनः पुण्यपापविनाशेऽपि मुक्तिकारणमिति प्रश्न जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञानियोके ही निर्जरा होती है, ऐसा नियम क्यों उतर यहाँ जो संवर पूर्वक निर्जरा है उसीको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही मोक्षका कारण है और जो अज्ञानियोंके निजरा होती है वह तो गजस्नान के समान निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कमकी तो निर्जरा करता है और महुतसे कर्मोंको बाँधता है। इस कारण अज्ञानियोंकी सविपाक निर्जराका यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा ( ज्ञानी जीवों में भी) जो सरागसम्यहियोंके निर्जरा है. वह यद्यपि अशुभ कर्मोंका नाश करती है, शुभ कर्मोंका नाश नहीं करती है, (दे० संवर२/४) फिर भी संसारकी स्थितिको थोडा करती है. और उसी भवमें तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्धका कारण हो जाती है । वह परम्परा मोक्षका कारण है। वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनोंका नाश होनेपर उसी में यह अविपाक निर्जरा मोक्षका कारण हो जाती है / २. प्रदेश गळनाले स्थिति व अनुभाग नहीं गढ़ते ध. १२/४,२,१३,१६२/४३१ / १२ खवगसेडीए पत्तधादस्स भावस्स कधमतगुणते. आज अस्स सबसेडीए पदेशस्स भाष व दिदि अनुभागाणं पादाभायादो प्रश्नक्षपक श्रेणी में पाठको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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